केदारनाथ सिंह
(1934 - 2018)
केदारनाथ सिंह का जन्म बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने वहीं से 'आधुनिक हिंदी कविता में बिम्ब-विधान' विषय पर पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की। कुछ समय गोरखपुर में हिंदी के प्राध्यापक रहे फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के पद से अवकाश प्राप्त किया। संप्रति दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। केदारनाथ सिंह मूलतः मानवीय संवेदनाओं के कवि हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने बिंब-विधान पर अधिक बल दिया है। केदारनाथ सिंह की कविताओं में शोर-शराबा न होकर, विद्रोह का शांत और संयत स्वर सशक्त रूप में उभरता है। ज़मीन पक रही है संकलन में ज़मीन, रोटी, बैल आदि उनकी इसी प्रकार की कविताएँ हैं। संवेदना और विचारबोध उनकी कविताओं में साथ-साथ चलते हैं। जीवन के बिना प्रकृति और वस्तुएँ कुछ भी नहीं हैं यह अहसास उन्हें अपनी कविताओं में आदमी के और समीप ले आया है।
इस प्रक्रिया में केदारनाथ सिंह की भाषा और भी नम्य और पारदर्शी हुई है और उनमें एक नयी ऋजुता और बेलौसपन आया है। उनकी कविताओं में रोज़मर्रा के जीवन के अनुभव परिचित बिंबों में बदलते दिखाई देते हैं। शिल्प में बातचीत की सहजता और अपनापन अनायास ही दृष्टिगोचर होता है। अकाल में सारस कविता संग्रह पर उनको 1989 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से और 1994 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा संचालित मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान तथा कुमारन आशान, व्यास सम्मान, दयावती मोदी पुरस्कार आदि अन्य कई सम्मानों से भी सम्मानित किया गया है।
अब तक केदारनाथ सिंह के सात काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं-अभी बिलकुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएँ - बाघ, टालस्टाय और साईकिल। कल्पना और छायावाद और आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान का विकास उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। मेरे समय के शब्द तथा कब्रिस्तान में पंचायत निबंध संग्रह हैं। हाल ही में उनकी चुनी हुई कविताओं का संग्रह प्रतिनिधि कविताएँ नाम से प्रकाशित हुआ है। उनके द्वारा संपादित ताना-बाना नाम से विविध भारतीय भाषाओं का हिंदी में अनूदित काव्य संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है।