रामचंद्र शुक्ल
(सन् 1884-1941)
रामचंद्र शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना गाँव में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू-अंग्रेजी और फ़ारसी में हुई थी। उनकी विधिवत शिक्षा इंटरमीडिएट तक ही हो पाई। बाद में उन्होंने स्वाध्याय द्वारा संस्कृत, अंग्रेजी, बाँग्ला और हिंदी के प्राचीन तथा नवीन साहित्य का गंभीरता से अध्ययन किया। कुछ समय तक वे मिर्जापुर के मिशन हाई स्कूल में चित्रकला के अध्यापक रहे। सन् 1905 में वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा में हिंदी शब्द सागर के निर्माण कार्य में सहायक संपादक के पद पर नियुक्त होकर काशी आ गए और बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक बने। बाबू श्यामसुंदर दास के अवकाश ग्रहण के बाद वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य करते रहे और इसी पद पर कार्य करते हुए यहीं उनका निधन हुआ। काशी ही उनकी कर्मस्थली रही।
आचार्य शुक्ल हिंदी के उच्चकोटि के आलोचक, इतिहासकार और साहित्य-चिंतक हैं। विज्ञान, दर्शन, इतिहास, भाषा विज्ञान, साहित्य और समाज के विभिन्न पक्षों से संबंधित लेखों, पुस्तकों के मौलिक लेखन, संपादन और अनुवादों के बीच से उनका जो ज्ञान संपन्न व्यापक व्यक्तित्व उभरता है, वह बेजोड़ है। उन्होंने भारतीय साहित्य की नयी अवधारणा प्रस्तुत की और हिंदी आलोचना का नया स्वरूप विकसित किया। हिंदी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित करते हुए उन्होंने हिंदी कवियों की सम्यक समीक्षा की तथा इतिहास में उनका स्थान निर्धारित किया। आलोचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने भाव और मनोविकार संबंधी उच्चकोटि के निबंधों की भी रचना की।
शुक्ल जी की गद्य शैली विवेचनात्मक है, जिसमें विचारशीलता, सूक्ष्म तर्क-योजना तथा सहृदयता का योग है। व्यंग्य और विनोद का प्रयोग करते हुए वे अपनी गद्य शैली को जीवंत और प्रभावशाली बनाते हैं। उनके लेखन में विचारों की दृढ़ता, निर्भीकता और आत्मविश्वास की एकता मिलती है। उनका शब्द-चयन और शब्द-संयोजन व्यापक है, जिसमें तत्सम शब्दों से लेकर प्रचलित उर्दू शब्दों तक का प्रयोग दिखाई देता है। अत्यंत सारगर्भित, विचार प्रधान, सूत्रात्मक वाक्य-रचना उनकी गद्य शैली की एक बड़ी विशेषता है।
आचार्य शुक्ल की कीर्ति का अक्षय स्रोत उनके द्वारा लिखित हिंदी साहित्य का इतिहास है। इसे उन्होंने पहले हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा था जो बाद में परिष्कृत और संशोधित रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। उनके कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं- गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, चिंतामणि (चार खंड) और रस मीमांसा आदि। इसके अलावा उन्होंने जायसी ग्रंथावली एवं भ्रमरगीत सार का संपादन किया तथा उनकी लंबी भूमिका लिखी।