भारतेंदु हरिश्चंद्र
1850-1885
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म काशी में हुआ था। उनका व्यक्तित्व देश-प्रेम और क्रांति-चेतना से समृद्ध था। किशोर वय में ही उन्होंने स्वदेश की दुर्दशा का त्रासद अनुभव कर लिया था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र पुनर्जागरण की चेतना के अप्रतिम नायक थे। बंगाल के प्रख्यात मनीषी और पुनर्जागरण के विशिष्ट नायक ईश्वरचंद्र विद्यासागर से उनका अंतरंग संबंध था। बंधन-मुक्ति की चेतना और आधुनिकता की रोशनी से हिंदी क्षेत्र को आलोकित करने के लिए उनका मानस व्याकुल रहता था। अपनी अभीप्सा को मूर्त करने के लिए उन्होंने समानधर्मा रचनाकारों को प्रेरित-प्रोत्साहित किया, तदीय समाज की स्थापना की, पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं, विविध विधाओं में साहित्य-रचना की। उन्होंने कविवचनसुधा नामक पत्रिका निकाली तथा हरिश्चंद्र मैगज़ीन का संपादन किया। बाद में यही हरिश्चंद्र चंद्रिका नाम से प्रकाशित होने लगी।
स्त्री-शिक्षा के लिए उन्होंने बाला बोधिनी पत्रिका का प्रकाशन किया। उन्होंने बांग्ला के नाटकों का अनुवाद भी किया, जिनमें धनंजय विजय, विद्या सुंदर, पाखंड विडंबन, सत्य हरिश्चंद्र तथा मुद्राराक्षस आदि प्रमुख हैं। उनके मौलिक नाटक हैं वैदिक हिंसा हिंसा न भवति, श्री चंद्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, नील देवी आदि।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की धारणा के मुताबिक सन् 1873 में 'हिंदी नई चाल में ढली। यह 'चाल' शिल्प और संवेदना की दृष्टि से सर्वथा नवीन थी। खड़ी बोली गद्य में हिंदी की यात्रा जातीय संवेदना से अनुप्राणित होकर शुरू हुई थी, जिसे भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन रचनाकारों ने अपनी साधना से अपेक्षित गति दी।
हिंदी नाटक और निबंध की परंपरा भारतेंदु से शुरू होती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रभाव उनके समकालीनों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिक हिंदी गद्य के विकास में उनका उल्लेखनीय योगदान है। उन्होंने अपने समकालीन लेखकों का तो नेतृत्व किया ही, साथ ही परवर्ती लेखकों के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य भी किया।