ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की भक्ति का विवेचन कीजिए।
रूपरेखा: :
1. प्रस्तावना
2. आत्म निवेदन
3. जीव की लघुता और परमात्मा की महानता
4. शरणागति
5. विरह विग्धता
6. निर्गुण वैष्णव भक्ति
7. उपसंहार
1. प्रस्तावना :
कबीर और ज्ञानी बताया जाता है। परखने पर ज्ञानी और संत दोनों भक्त के अंतरगत ही आते र मनिार्म की रसात्मक अनुभूति है।" यहाँ रस का अर्थ है परमात्मा में लीन होना। श्रद्धा और क्ति हैं। कबीर वस्तुतः भक्त हैं। ज्ञान, योग, रहस्यवाद आदि भक्ति के समर्थन में आते हैं।
नारद भगवत् में नवधा भक्ति की भविक विश्लेषण हुआ है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दस्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
2. आत्म निवेदन :
भक्ति का प्रधान तत्व आत्म निवेदन है। कबीर परमात्मा से आत्म निवेदन करते हुए कहते हैं –
हे भगवान - साई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाय......। यह सत्वगुण का लक्षण हैं। इस केलिए आत्म समर्पण की।
3. जीव की लघुता और परमात्मा की महानता :
भक्ति में जीव अपनी लघुता प्रकट करता है और साथ ही परमात्मा की महानता स्वीकार करता है। वह अपने को परमात्मा के अनुयायी और कुत्ते तक बताता है।
कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाम।
गले राम की जेवडी, जित खींचे तित जाऊ॥
4. शरणागत
भक्ति की चरम सीमा शरणागति है। भगवान के नाम पर पूरे रूप से अपना आत्म समर्पण करना शरणागति है। गीताकार के अनुसार - सारे धर्मों कोत्याग कर परमात्मा की शरण में जाना सब से महान धर्म है। तटस्थ जीवन बिताते हुए परमात्मा - का ध्यान करना शरणागति हैं। शरणागति में आत्मोज्जीवन होता हैं। इसीलिए कबीर कहते हैं "मैं किसी अन्य को जानता नहीं केवल राम को जानता हूँ।"
वेद न जानूँ, भेद न जानू जानूँ एकहि रामा॥
5. विरह विदग्धता
भक्ति में तल्लीन होने पर जीव को भगवान के दर्शन का आभास होता है। उस आभास में जीव या भक्त विरह की व्यथा भोगता हैं। कबीर की वाणी में.......
आँखडियाँ झायी पडी, पंथ निहारि निहारि।
जीभडियां छाला पडया., राम पुकारि पुकारि ॥
परमात्मा के दर्शन होने पर भक्त आनन्द विभोर हो कर सर्व जगत में परमात्मा के दर्शन करता है.
लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ॥
6. निर्गुण वैष्णव भक्ति :
कबीर निर्गुण भक्तिधारा के प्रमुख कवि हैं। लेकिन वे राम का जप करते रहते हैं, और कहते है
निरगुण राम निरगुण राम जपहुरे भाई।
रामानन्द के शिष्य होने के कारण कबीर पर वैष्णव भक्ति का प्रभाव अधिक है। उनकी प्रतीक योजना और उलटबाँसियों में वैष्णव संप्रदाय के ही अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। वे सारे संसार को भूल सकते हैं, लेकिन राम नाम नहीं भूल सकते। दिन और रात राम के जागरण में वे रहते हैं। कभी-कभी वे रोने भी लगते हैं।
एक न भूला दोइ न भूला, भूला सब संसारा।
सुखिया सब संसार है, खाए और सोये।।
दुखिया दास कबीर है जागे और शेये।।
उपसंहार : -
भक्ति अनुभूति प्रधान है। अनुभूति भावना से समन्वित होने पर भक्ति पल्लवित होती है। जाति-पाँति और ऊँच नीच की भावना रहित निर्गुण भक्ति की रसधारा में निमग्न होनेवाले सर्वप्रथम साधक हैं कबीर। कबीर अलौकिक भावधारा से भक्ति को लौकिक जगत में ले आये। भक्ति में विषय वासनाओं का परित्याग, भजन, कीर्तन, गुरुकृपा, सादाचार, आडम्बर राहित्य, समदृष्टि आदि लक्षण होते हैं। सब से बढ़ कर भगवान के प्रति आत्मसमर्पण होता है। सच्चा भक्त निडर रहता है, क्यों कि परमात्मा सदा उस के साथ रहता है। अतः कबीर का कथन है. -
जाकै रक्खै साइया, मारि न सक्कै कोइ।
बाल न बंका करि सकै, जो जग बैरी होइ।।