जायसी - मानसरोदक खण्ड
(7).
सखी एक तेइँ खेल न जाना, चेत मनिहार गँवाना
कवॅल डार गहि भै बेकरारा, कासौं पुकारौं आपन हारा
कित खेलै आइउँ एहि साथा, हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा
घर पैठत पूछब यहि हारू, कौनु उत्तर पाउब पैसारू
नेन सीप आँसुन्ह तस भरे, जानौ मोति गिरहि सब ढरे
सखिन कहा वौरी कोकिला, कौन पानि जोहि पौन न मिला?
हारु गँबाइ सो ऐसे रोबा, हेरि हेराइ लेहु जौं खोवा
लागीं सब मिलि हेरे, बूड़ि बूड़ि एक साथ
कोइ उठी मोती लेइ, घोंघा काहू हाथ
शब्दार्थ:
तेइ = वह । बेकरारा = व्याकुल । पैसारू = प्रवेश । पैठत = घुसते ही । औसेहि = ऐसेही । हेरि = ढूँढना । हेराई = ढूँढवाना।
भावार्थ
एक सखी उस खेल को नहीं जानती थी। उसका हार खो गया तो वह बेसुध हो गई। कमल की नाल पकड कर वह व्याकुल हो गई और कहने लगी, "मैं अपने हार का विषय किस से पुकारूँ? मैं इनके साथ खेलने ही क्यों आयी थीं जो कि स्वयं अपने हाथों से अपना हार खो बैठी। घर में घुसते ही इस हार के विषय में पूछा जायेगा तो फिर क्या उत्तर देकर प्रवेश कर पाऊँगी ?” उसके नेत्र रूपी सीपी में आँसू भरे हुए थे। वे सीपी से मोती गिरते जैसे लगते थे। सखियों ने कहा र “हे भोली कोयल। ऐसा कौन - सा पानी है जिसमें पवन न मिली हो । सुख-दुख अथवा अच्छाई - बुराई सर्वत्र व्याप्त हैं। खेल की अच्छाई के साथ हार खोने की बुराई भी वैसे ही मिली हुई है। हार खोनेवाला ऐसा ही रोता है। खोये हुए हार को ढूँढ लो अथवा हम से ढूँढ़वा लो।
वे सब मिल करके ढूँढ़ने लगीं और एक साथ ही सब डुबकी लगाने लगी। किसी के हाथ में मोती आया और उसे लेकर ही ऊपर उठी और किसी के हाथ में घोंघा ही लगा।
विशेषताः
1. जायसी यहाँ साधना में होने विघ्नों की और संकेत करते हैं।
2. उपमा तथा छेकानुप्रास अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।