शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2022

“ऐसे-ऐसे” | विष्णु प्रभाकर | AISE AISE | VISHNU PRABHAKAR | HINDI | CBSE | CLASS 6 | CHAPTER 8 | बसंत | NCERT

“ऐसे-ऐसे” - विष्णु प्रभाकर


पात्र परिचय

मोहन : एक विद्यार्थी

दीनानाथ : एक पड़ोसी

माँ : मोहन की माँ

पिता : मोहन के पिता

मास्टर : मोहन के मास्टर जी 

वैद्य जी, डॉक्टर तथा एक पड़ोसिन 

(सड़क के किनारे एक सुंदर फ्लैट में बैठक का दृश्य। उसका एक दरवाजा सड़कवाले बरामदे में खुलता है, दूसरा अंदर के कमरे में, तीसरा रसोईघर में। अलमारियों में पुस्तकें लगी हैं। एक ओर रेडियो का सेट है। दो और दो छोटे तख्त हैं, जिन पर गलीचे बिछे हैं। बीच में कुरसियाँ हैं। एक छोटी मेज भी है। उस पर फोन रखा है। परदा उठने पर मोहन एक तख्त पर लेटा है। आठ-नौ वर्ष के लगभग उम्र होगी उसकी। तीसरी क्लास में पढ़ता है। इस समय बड़ा बेचैन जान पड़ता है। बार-बार पेट को पकड़ता है। उसके माता-पिता पास बैठे हैं।)

माँ (पुचकारकर) नन ऐसे मत कर अभी ठीक हुआ जाता है। अभी डॉक्टर को बुलाया है। ले, तब तक सेंक ले। (चादर हटाकर पेट पर बोतल रखती है। फिर मोहन के पिता की ओर मुड़ती है।) इसने कहीं कुछ अंश तो नहीं खा लिया?

पिता कहाँ? कुछ भी नहीं सिर्फ एक केला और एक संतरा खाया था। अरे, यह तो दफ्तर से चलने तक कूदता फिर रहा था। बस अड्डे पर आकर यकायक बोला- पिता जी मेरे पेट में तो कुछ ऐसे ऐसे हो रहा है। माँ कैसे?

पिता : बस ऐसे-ऐसे करता रहा। मैने कहा- अरे गड़गड़ होती है? तो बोला नहीं। फिर पूछा- चाकू-मा चुभता है? तो जवाब दिया- नहीं गोला-सा फूटता है? तो बोला पूछा उसका जवाब नहीं बस एक ही रट लगाता रहा. कुछ ऐसे

माँ (हँसकर) हँसी की हंसी, दुख का दुख यह ऐसे ऐसे क्या होता है? कोई नयी बीमारी तो नहीं? बेचारे का मुँह कैसे उत्तर गया

पिता अभी एकदम सफेद पड़ गया था। खड़ा नहीं रहा गया। बस में भी नाचता रहा मेरे पेट में 'ऐसे ऐसे होता है। 'ऐसे-ऐसे' होता है।

मोहन चोर से कराहकर) माँ ओ माँ माँ मेरे बेटे मेरे लाल ऐसे नहीं। अजी देखना डॉक्टर क्यों नहीं आया इसे तो कुछ ही तकलीफ़ जान पड़ती है। यह 'ऐसे-ऐसे' तो कोई बड़ी खराब बीमारी है। देखोन कैसे लोट रहा है! जरा भी कल नहीं पड़ती हींग, चूरन पिपरमेंट आ जाते।

(तभी फ़ोन की घंटी बजती है। मोहन के पिता उठाते हैं।)

पिता : यह 43332 है। जी, जी हाँ बोल रहा हूँ. कौन? डॉक्टर साहब! जी हाँ, मोहन के पेट में दर्द है.. जी नहीं खाया तो कुछ नहीं, ... बस यही कह रहा है... बस जी....नहीं, गिरा भी नहीं...' ऐसे-ऐसे' होता है। बस जी, 'ऐसे-ऐसे' होता है। बस जी. 'ऐसे-ऐसे!' यह 'ऐसे-ऐसे' क्या बला है. कुछ समझ में नहीं आता। जी... जी हाँ! चेहरा एकदम सफ़ेद हो रहा है। नाचा. नाचता फिरता है... जी नहीं, दस्त तो नहीं आया. जी हाँ पेशाब तो आया था... जी नहीं, रंग तो नहीं देखा। आप कहें तो अब देख लेंगे.. अच्छा जी जरा जल्दी आइए। अच्छा जी बड़ी कृपा है। (फोन का चौगा रख देते हैं। डॉक्टर साहब चल दिए हैं। पाँच मिनट में आ जाते हैं।

(पड़ोस के लाला दीनानाथ का प्रवेश मोहन जोर से कराहता है।) 

मोहन : माँ...माँ...ओ..ओ... ( उलटी आती है उठकर नीचे झुकता है। माँ सिर पकड़ती है। मोहन तीन-चार बार 'ओओ' करता है। थूकता है, फिर लेट जाता है।) हाय, हाय!

माँ : (कमर सहलाती हुई) क्या हो गया? दोपहर को भला-चंगा गया था। कुछ समझ में नहीं आता। कैसा पड़ा है। नहीं तो मोहन भला कब पड़ने वाला है। हर वक्त पर को सिर पर उठाए रहता है।

दीनानाथ : अजी, घर क्या पड़ोस को भी गुलजार किए रहता है। इसे छेड़, उसे पछाड़ इसके मुक्का. उसके थप्पड़ यहाँ-वहाँ हर कहीं मोहन ही मोहन।

पिता : बड़ा नटखट है। 

माँ ; पर अब तो बेचारा कैसा थक गया है। मुझे तो डर है कि कल स्कूल कैसे जाएगा।  

दीनानाथ : जी हाँ कुछ बड़ी तकलीफ है, तभी तो पड़ा। मामूली तकलीफ़ को तो यह कुछ समझता नहीं। पर कोई डर नहीं। मैं वैद्य जी से कह आया हूँ। वे आ ही रहे हैं। ठीक कर देंगे।

मोहन - (तेजी से कराहकर) अरे रे-रे-रे... ओह! 

माँ - (घबराकर) क्या है, बेटा? क्या हुआ?

मोहन - (रुआँसा-सा) बड़े जोर से ऐसे-ऐसे होता है। ऐसे-ऐसे

माँ - ऐसे कैसे, बेटे? ऐसे क्या होता है?

मोहन - ऐसे-ऐसे (पेट दबाता है।)

(वैद्य जी का प्रवेश)

वैद्य जी - कहाँ है मोहन? मैंने कहा, जय राम जी की। कहो बेटा, खेलने से जी भर गया क्या? कोई धमा चौकड़ी करने को नहीं बची है क्या? 
( सब उठकर हाथ जोड़ते हैं। मोहन के पास कुरसी पर बैठ जाते हैं)

पिता - वैद्य जी, शाम तक ठीक था। दफ्तर से चलते वक्त रास्ते में एकदम बोला - मेरे पेट में दर्द होता है। ऐसे-ऐसे होता है। समझ नहीं आता, यह कैसा दर्द है।

वैद्य जी - अभी बता देता हूँ। असल में बच्चा है। समझा नहीं पाता है (नाडी दबाकर) वात का प्रकोप है... मैने कहा, बेटा, जीभ तो दिखाओ (मोहन जीभ निकालता है। कब्ज है। पेट साफ नहीं हुआ। (पेट टोलकर) पेट साफ़ नहीं है। मल रुक जाने से वायु बढ़ गई है। क्यों बेटा? (हाथ की उँगलियों को फैलकर फिर सिकोड़ते हैं।) ऐसे-ऐसे होता है?

मोहन - (कराहकर) जी हाँ... ओह

वैद्य जी - (हर्ष से उछलकर) मैंने कहा न मैं समझ गया। अभी पुड़िया भेजता हूँ। मामूली बात है, पर यही मामूली बात कभी-कभी बड़ों-बड़ों को छका देती है। समझने की बात है। मैंने कहा, आओ जी. दीनानाथ जी, आप ही पुड़िया ले लो। (मोहन की माँ से) आधे-आधे घंटे बाद गरम पानी से देनी है। दो-तीन दस्त होंगे। बस फिर 'ऐसे-ऐसे' ऐसे भागेगा जैसे गधे के सिर से सींग! 
(वैद्य जी द्वार की ओर बढ़ते हैं। मोहन के पिता पाँच का नोट निकालते हैं।) 
पिता - वैद्य जी, यह आपकी भेंट (नोट देते हैं।)

वैद्य जी - (नोट लेते हुए) अरे मैंने कहा, आप यह क्या करते हैं? आप और हम क्या दो हैं? 
(अंदर के दरवाजे से जाते हैं। तभी डॉक्टर प्रवेश करते हैं।) 

डॉक्टर : हैलो मोहन! क्या बात है? 'ऐसे-ऐसे' क्या कर लिया? 
(माँ और पिता जी फिर उठते हैं। मोहन कराहता है। डॉक्टर पास बैठते हैं।) 
पिता : डॉक्टर साहब कुछ समझ में नहीं आता।

डॉक्टर : (पेट दबाने लगते हैं।) अभी देखता हूँ। जीभ तो दिखाओ बेटा (मोहन जीभ निकालता है।) हूँ, तो मिस्टर आपके पेट में कैसे होता है? ऐसे-ऐसे? 
(मोहन बोलता नहीं, कराहता है।)

माँ - बताओ, बेटा! डॉक्टर साहब को समझा दो।

मोहन : जी... जी...ऐसे-ऐसे। कुछ ऐसे-ऐसे होता है। (हाथ से बताता है। उँगलियाँ भाँचता है। डॉक्टर, तबीयत तो बड़ी खराब है।

डॉक्टर : (सहसा गंभीर होकर) वह तो मैं देख रहा हूँ। चेहरा बताता है, इसे काफ़ी दर्द है। असल में कई तरह के दर्द चल पड़े हैं। कौलिक पेन तो है नहीं। और फोड़ा भी नहीं जान पड़ता। (बराबर पेट टटोलता रहता है।)

माँ : (काँपकर) फोड़ा!

डॉक्टर : जी नहीं, वह नहीं है। बिलकुल नहीं है। (मोहन से) ज़रा मुँह फिर खोलना। जीभ निकालो। (मोहन जीभ निकालता है।) हाँ, कब्ज़ ही लगता है। कुछ बदहज़मी भी है। (उठते हुए) कोई बात नहीं। दवा भेजता हूँ। (पिता से) क्यों न आप ही चलें। मेरा विचार है कि एक ही खुराक पीने के बाद तबीयत ठीक हो जाएगी। कभी-कभी हवा रुक जाती है और फंदा डाल लेती है। बस उसी की ऐंठन है।

(डॉक्टर जाते हैं। मोहन के पिता दस का नोट लिए पीछे-पीछे जाते हैं और डॉक्टर साहब को देते हैं।)

माँ - सेंक तो दूँ, डॉक्टर साहब?

डॉक्टर : (दूर से) हाँ, गरम पानी की बोतल से सेंक दीजिए। (डॉक्टर जाते हैं। माँ बोतल उठाती है। पड़ोसिन आती है।) 

पड़ोसिन - क्यों मोहन की माँ, कैसा है मोहन?

माँ - आओ जी, रामू की काकी! कैसा क्या होता। लोचा लोचा फिरे है। जाने वह 'ऐसे-ऐसे' दर्द क्या है, लड़के का बुरा हाल कर दिया।

पड़ोसिन - ना जी, इत्ती नयी-नयी बीमारियाँ निकली हैं। देख लेना. यह भी कोई नया दर्द होगा। राम मारी बीमारियों ने तंग कर दिया। नए-नए बुखार निकल आए हैं। वह बात है कि खाना-पीना तो रहा नहीं।

माँ : डॉक्टर कहता है कि बदहजमी है। आज तो रोटी भी उनके साथ खाकर गया था। वहाँ भी कुछ नहीं खाया। आजकल तो बिना खाए बीमारी होती है। (बाहर से आवाज आती है-'मोहन! मोहन!'। फिर मास्टर जी का प्रवेश होता है।)

माँ : ओह, मोहन के मास्टर जी हैं। (पुकारकर) आ जाइए!

मास्टर : सुना है कि मोहन के पेट में कुछ 'ऐसे-ऐसे' हो रहा है! क्यों, भाई? (पास आकर) हाँ, चेहरा तो कुछ उतरा हुआ है। दादा, कल तो स्कूल जाना है। तुम्हारे बिना तो क्लास में रौनक ही नहीं रहेगी। क्यों माता जी, आपने क्या खिला दिया था इसे ?

माँ : खाया तो बेचारे ने कुछ नहीं ।

मास्टर : तब शायद न खाने का दर्द है। समझ गया, उसी में 'ऐसे-ऐसे' होता है। 

माँ : पर मास्टर जी, वैद्य और डॉक्टर तो दस्त की दवा भेजेंगे।

मास्टर : माता जी, मोहन की दवा वैद्य और डॉक्टर के पास नहीं है। इसकी 'ऐसे-ऐसे' की बीमारी को मैं जानता हूँ। अकसर मोहन जैसे लड़कों को वह हो जाती है।

माँ : सच! क्या बीमारी है यह?

मास्टर : अभी बताता हूँ। (मोहन से) अच्छा साहब! दर्द तो दूर हो ही जाएगा। डरो मत। बेशक कल स्कूल मत आना। पर हाँ, एक बात तो बताओ, स्कूल का काम तो पूरा कर लिया है? 

(मोहन चुप रहता है।)

माँ : जवाब दो, बेटा, मास्टर जी क्या पूछते हैं।

मास्टर : हाँ, बोलो बेटा। 

(मोहन कुछ देर फिर मौन रहता है। फिर इनकार में सिर हिलाता है।)

मोहन : जी. सब नहीं हुआ।

मास्टर : हूँ! शायद सवाल रह गए हैं।

मोहन - जी !

मास्टर : तो यह बात है। 'ऐसे-ऐसे' काम न करने का डर है।

माँ : (चौंककर) क्या? 

(मोहन सहसा मुँह छिपा लेता है।)

मास्टर : (हँसकर) कुछ नहीं, माता जी, मोहन ने महीना भर मौज की। स्कूल का काम रह गया। आज खयाल आया। बस डर के मारे पेट में 'ऐसे-ऐसे' होने लगा - 'ऐसे-ऐसे'! अच्छा, उठिए साहब! आपके 'ऐसे-ऐसे' की दवा मेरे पास है। स्कूल से आपको दो दिन की छुट्टी मिलेगी। आप उसमें काम पूरा करेंगे और आपका 'ऐसे-ऐसे' दूर भाग जाएगा। (मोहन उसी तरह मुँह छिपाए रहता है।) अब उठकर सवाल शुरू कीजिए। उठिए, खाना मिलेगा। 

(मोहन उठता है। माँ ठगी-सी देखती है। दूसरी ओर से पिता और दीनानाथ दवा लेकर प्रवेश करते हैं।)

माँ : क्यों रे मोहन, तेरे पेट में तो बहुत बड़ी दाढ़ी है। हमारी तो जान निकल गई। पंद्रह-बीस रुपए खर्च हुए. सो अलग। (पिता से) देखा जी आपने!

पिता : ( चकित होकर) क्या-क्या हुआ?

माँ : क्या-क्या होता ! यह 'ऐसे-ऐसे' पेट का दर्द नहीं है, स्कूल का काम न करने का डर है।

पिता : हें!

(दवा की शीशी हाथ से छूटकर फ़र्श पर गिर पड़ती है। एक क्षण सब ठगे-से मोहन को देखते हैं। फिर हँस पड़ते हैं।)

दीनानाथ : वाह, मोहन, वाह !

पिता : वाह, बेटा जी, वाह! तुमने तो खूब छकाया ! 

(एक अट्टहास के बाद परदा गिर जाता है।)