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रविवार, 23 मई 2021

राम का राज्याभिषेक | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण |RAM KA RAJABHISHEK | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

राम का राज्याभिषेक 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

विभीषण चाहते थे कि राम कुछ दिन लंका में रुक जाएँ। नयी लंका में। उनकी लंका में। उन्होंने अपनी इच्छा राम को बताई। उसका कारण भी। “मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिन यहाँ विश्राम कर लें। युद्ध की थकान उतर जाएगी। वैसे इसमें मेरा स्वार्थ भी है। आपका सान्निध्य और रीति-नीति सीखने का अवसर। आपने यह नगरी देखी भी तो नहीं है। "राम ने लंका नगरी में कदम नहीं रखा था। सीता से मिलने हनुमान गए। दो बार। अंगद गए। लक्ष्मण भी हो आए। विभीषण के राजतिलक के समय। राम उस नगरी से दूर ही रहे। "यह संभव नहीं है, मित्र!" राम ने कहा। वनवास के चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं। मैं तत्काल अयोध्या लौटना चाहता हूँ। भरत मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। जाने में विलंब हुआ तो वे प्राण दे देंगे। उन्होंने प्रतिज्ञा की है। मैं उनकी प्रतिज्ञा से बँधा हूँ।" विभीषण राम से अलग नहीं होना चाहते थे। उनका अनुरोध राम ने अस्वीकार कर दिया था। पर वे निराश नहीं थे। इस बार उन्होंने एक नया प्रस्ताव रखा। "मेरी इच्छा है कि मैं आपके राज्याभिषेक में उपस्थित रहूँ। मुझे अपने साथ चलने की अनुमति दें।" राम ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। बोले, "आप मेरे लिए यात्रा की व्यवस्था कर दें।" राम ने विभीषण की विनती मान ली तो सुग्रीव और हनुमान आगे आए। राम ने उन्हें भी अयोध्या आमंत्रित किया। विभीषण का पुष्पक विमान उन्हें ले जाने के लिए तैयार था। विमान के उड़ान भरने तक वानर सेना वहीं रही। विमान जाने के बाद वे कूदते-फाँदते किष्किंधा की ओर चल पड़े। विभीषण ने अपने कोषागार से उन्हें रत्नाभूषण दिए थे। उनकी वर्षा की थी। उसी विमान से। वानरों के लिए यह मनोरंजन था। जिसे जो मिला, लूटा। विमान लंका से चला। उड़ान भरने के बाद उसने उत्तर दिशा पकड़ी। जिधर अयोध्या नगरी थी। राम सीता के साथ बैठे थे। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थान बताते जा रहे थे। रावण सीता का हरण कर उसी मार्ग से लाया था। पंचवटी से। उस समय सीता ने वे स्थान ठीक से नहीं देखे थे। स्थानों के नाम उन्हें ज्ञात नहीं थे। पहले रणभूमि पड़ी। फिर वह पुल, जिसे नल और नील ने बनाया था। सेतुबंध। किष्किधा रास्ते में था। वानरराज सुग्रीव की राजधानी थी। सीता के आग्रह पर विमान किष्किधा में उतरा। सुग्रीव की रानियों तारा और रूपा को लेने। आगे ऋष्यमूक पर्वत पड़ा और उसके बाद पंपा सरोवर। उसकी सुंदरता अद्भुत थी। राम ने सीता को एक पतली, चमकती हुई रेखा दिखाई। “सीते! देखो, यह गोदावरी नदी है। ऊँचाई से इतनी छोटी दिख रही है। इसी के तट पर पंचवटी है। देखो, हमारी पर्णकुटी अब भी बनी हुई है। "सीता ने आँखें बंद कर लीं। जैसे पंचवटी को पुनः देखने से डर रही हों। उन्हें पूरा घटनाक्रम याद आ गया। गंगा-यमुना के संगम पर ऋषि भरद्वाज का आश्रम था। विमान वहाँ उतरा। सबने रात वहीं बिताई। ऋषि का आग्रह था। राम उसे टाल नहीं सके। वहीं से उन्होंने हनुमान को अयोध्या भेजा। भरत को उनके आगमन की पूर्व सूचना देने के लिए।


राम सीधे अयोध्या नहीं जाना चाहते थे। उनके मन में एक प्रश्न था। एक संशय। चौदह वर्ष की अवधि कम नहीं होती। कहीं इस अवधि में भरत को सत्ता का मोह तो नहीं हो गया? हनुमान को अयोध्या भेजते हुए उन्होंने यह प्रश्न रखा था। कहा, "हे वानर शिरोमणि, आप भरत को मेरे आने की सूचना दीजिएगा। ध्यान से देखिएगा कि यह समाचार सुनकर उनके चेहरे पर कैसे भाव आते हैं? यदि भरत को इस सूचना से प्रसन्नता नहीं हुई तो मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा। भरत राजकाज सँभालें, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं। "हनुमान वायु वेग से चले। जैसे उड़ रहे हों। मार्ग में निषादराज गुह से भेंट की। उनसे अयोध्या का हाल जाना। वहाँ से नंदीग्राम पहुँचे। उन्होंने भरत से कहा, “श्रीराम के वनवास की अवधि पूर्ण हो गई है। वे लौट रहे हैं। प्रयाग पहुँच चुके हैं। मैं उन्हीं की आज्ञा से आपके पास आया हूँ। "भरत की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। आँखों में खुशी के आँसू थे। वे बार-बार हनुमान को धन्यवाद दे रहे थे। यह शुभ सूचना उन तक पहुँचाने के लिए। उनके चेहरे पर केवल एक भाव था। प्रसन्नता। हनुमान उनसे विदा लेकर आश्रम लौट आए। राम के पास। अगली सुबह प्रयाग से शृंगवेरपुर होते हुए राम का विमान कुछ ही देर में सरयू नदी के ऊपर पहुँच गया। दूर अयोध्या नगरी के भवनों के शिखर दिखाई देने लगे। सबने अयोध्या को प्रणाम किया। 


उधर, भरत से सूचना पाकर अयोध्या में उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं। नगर को सजाया गया। शत्रुघ्न राज्याभिषेक की व्यवस्था में लग गए। महल से तीनों रानियाँ नंदीग्राम के लिए निकल पड़ी। कौशल्या सबसे आगे थीं। उन्हें पता था कि राम पहले भरत से भेंट करेंगे। राम का विमान नंदीग्राम उतरा। उनका भव्य स्वागत हुआ। आकाश राम के जयघोष से गूंज उठा। राम ने विमान से उतरकर भरत को गले लगाया। माताओं को प्रणाम किया। भरत भागते हुए आश्रम के भीतर गए। राम की खड़ाऊँ उठा लाए। जिसे सिंहासन पर रखकर उन्होंने चौदह वर्ष राजकाज चलाया था। झुककर अपने हाथों से राम को पहनाई। मिलन का यह दृश्य अद्भुत था। सबके चेहरों पर प्रसन्नता थी। सबकी आँखें खुशी के आँसुओं से नम थीं। राम-लक्ष्मण ने नंदीग्राम में तपस्वी बाना उतार दिया। दोनों को राजसी वस्त्र पहनाए गए। जन समूह राम की जयकार करता अयोध्या के लिए चला। शोभायात्रा की छटा देखने योग्य थी। 


नंदीग्राम से चलने के पूर्व राम ने पुष्पक विमान को कुबेर के पास भेज दिया। वह विमान कुबेर का ही था। रावण ने उसे बलात छीन लिया था। सजी-धजी अयोध्या नगरी राम के दर्शन पर आह्लादित थी। नगरवासी प्रसन्न थे। उन्हें उनके राम वापस मिल गए थे। माताएँ प्रसन्न थीं। उनका पुत्र लौट आया था। मुनिगण खुश थे। राम ने उनकी शिक्षाओं का मान रखा। कभी विरत नहीं हुए। भरत ने अयोध्या का राज्य राम को नंदीग्राम में ही लौटा दिया था। राजमहल पहुँचे तो मुनि वशिष्ठ ने कहा, कल सुबह राम का राज्याभिषेक होगा।" इसकी तैयारी शत्रुघ्न ने पहले ही कर दी थी। पूरा नगर सजाया गया था। दीपों से जगमगा रहा था। फूलों से सुवासित था। वाद्ययंत्रों से झंकृत था। पूरे चौदह वर्ष बाद। अगले दिन मुनि वशिष्ठ ने राम का राजतिलक किया। राम और सीता सोने के रत्नजटित सिंहासन पर बैठे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके पास खड़े थे। हनुमान नीचे बैठ गए। माताओं ने आरती उतारी। मंगलाचार हुआ। शुभ गीत गाए गए। राम ने सीता को एक बहुमूल्य हार दिया। प्रजाजनों को उपहार दिए। अनेक वस्तुएँ प्रदान की। "कल सीता ने अपने गले का हार उतारा। वे दुविधा में थीं। किसे दें? दुविधा राम ने दूर की, "जिस पर तुम सर्वाधिक प्रसन्न हो, उसे दे दो! "सीता ने वह हार हनुमान को भेंट कर दिया। भक्ति और पराक्रम के लिए। कुछ दिनों में सारे अतिथि एक-एक कर चले गए। विभीषण लंका लौटे। सुग्रीव ने किष्किधा की ओर प्रयाण किया।


ऋषि-मुनि अपने आश्रम चले गए। हनुमान कहीं नहीं गए। राम दरबार में ही रहे। राम ने लंबे समय तक अयोध्या पर राज किया। उनके राज में किसी को कष्ट नहीं था। सब सुखी थे। भेदभाव नहीं था। कोई बीमार नहीं पड़ता था। खेत हरे-भरे थे। पेड़ फलों से लदे रहते थे। राम न्यायप्रिय थे। गुणों के सागर थे। उनका राज्य राम राज्य था। आज तक स्मृतियों में है।

लंका विजय | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | LANKA VIJAY | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

लंका विजय 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

लंका कूच की तैयारियाँ रातभर चलती रहीं। सभी तत्पर। सभी उद्यत। सुबह कूच से पहले सुग्रीव ने वानरों को संबोधित किया। युद्ध के बारे में। कहा, "युद्ध भयानक होगा। इसमें केवल वही सैनिक जाएँगे जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हों। जो दुर्बल हैं, यहीं रुक जाएँ। "वानर सेना को युद्ध के नियम बताए गए। रक्षा और आक्रमण के तरीके। सेना किष्किंधा से दहाड़ती, गरजती, किलकारियाँ भरती रवाना हुई। राम, लक्ष्मण और सुग्रीव की जयकार से आकाश गूंज उठा। लाखों वानर थे। चारों ओर कोलाहल। वे पेड़ों-पहाड़ों को रौंदते चले जा रहे थे। इसका नेतृत्व नल कर रहे थे। सुग्रीव के सेनापति। जामवंत और हनुमान सबसे पीछे थे। यह सेना की रणनीति का हिस्सा था। दिन-रात चलकर सेना ने महेंद्र पर्वत पर डेरा डाला। वही पर्वत, जहाँ से हनुमान ने छलाँग लगाई थी। समुद्र निकट ही था। पर्वत पर सेना का ध्वज लगाया गया। तंबू लगे। पताकाएँ हवा में लहरा रही थीं।

उधर, लंका में खलबली मची हुई थी। राक्षसों में बेचैनी थी। उनके मन में डर बैठ गया था। राम की शक्ति को लेकर। जिसका दूत लंका में आग लगा सकता है, वह स्वयं कितना शक्तिशाली होगा! नगर में चर्चा का विषय यही था। लेकिन रावण इससे अनभिज्ञ था। उसे कौन बताता? किसी में इतना साहस नहीं था। ये चर्चाएँ विभीषण ने सुनीं। नगर की हताशा उनसे देखी नहीं गई। “ऐसी हताश सेना युद्ध नहीं कर सकती। उसकी पराजय निश्चित है। "वे रावण के पास गए। उसे सही स्थिति बताने। समझाने। राम से युद्ध न किया जाए। उन्होंने कहा, “आप सीता को लौटा दें। सबका कल्याण इसी में है। सीता मिल जाएँगी तो वे आक्रमण नहीं करेंगे। "रावण ने विभीषण की बात अनसुनी कर दी। उन्हें अपने कक्ष से निकाल दिया। क्रोध में वह स्वयं भी उठकर चल पड़ा। सभा कक्ष की ओर। उसे राम के समुद्र तट पर पहुँचने का समाचार मिल चुका था। सैनिकों ने राम की सेना की पताकाएँ दूर से देख ली थीं। विभीषण रावण के पीछे चलते रहे। बोलते रहे, “सीता आपके गले में बँधा साँप है। वह आपको डस लेगा। इसे छोटी बात मत समझिए, लंकाधिराज! ये संकेत महाविनाश के हैं। मैं अब भी कहता हूँ, सीता को लौटा दीजिए। लंका बच जाएगी।' "तुम मेरे भाई नहीं, शत्रु हो। मेरे शत्रु के शुभचिंतक हो, ”रावण का क्रोध भड़क उठा। “निकल जाओ यहाँ से। मुझे तुम्हारा साथ नहीं चाहिए।" रावण सभागार की ओर मुड़ गया। विभीषण पीछे। दोनों के रास्ते अलग हो गए। विभीषण उसी रात लंका से निकल गए। चार सहायकों के साथ। उन्होंने राम के पास जाना ठीक समझा। समुद्र पार राम के शिविर में अचानक खलबली मची। एक वानर चिल्लाकर सबको सावधान कर रहा था। "हमारे शिविर में राक्षस आ गए हैं।" विभीषण कुछ दूर खड़े थे। वानरों ने उन्हें सुग्रीव के सामने पेश किया। "वानरराज! मैं लंका के राजा रावण का छोटा भाई हूँ। मैं राम की शरण में आया हूँ। आप मुझे उनके पास पहुँचा दें, "विभीषण के चेहरे पर डर नहीं था। विश्वास था। शब्दों में षड्यंत्र नहीं था। कातरता थी। याचना थी। सुग्रीव को उनकी बात पर फिर भी भरोसा नहीं हुआ। "मेरा नाम विभीषण है। रावण ने मुझे लंका से निकाल दिया। मैंने उससे सीता को लौटाने की बात कही थी। क्रोध और अहंकार में चूर रावण ने मुझे सभा में अपमानित किया। मैं प्राण बचाकर आया हूँ। एक बार राम से मिलवा दें। मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूँ।" सुग्रीव राम के पास गए। मन में शंका अब भी थी। अंगद भी उसे संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। राम ने बात सुनी और कहा, "हमें विभीषण को स्वीकार करना चाहिए। मैं शरण में आए व्यक्ति को कभी निराश नहीं करता। यह मेरी नीति है। विभीषण को आदर से अंदर लाइए। "विभीषण राम के पास पहुँचे। राम ने उनका सत्कार किया। लंका का समाचार पूछा। जल्दी ही विभीषण राम के विश्वासपात्र बन गए। उन्होंने लंका की बहुत सी जानकारी राम को दी। रावण और उसके योद्धाओं की शक्ति के बारे में बताया। कहा, "रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए बल और बुद्धि दोनों की आवश्यकता है।" "विभीषण! तुम चिंता मत करो। राक्षस मारे जाएँगे। लंका की राजगद्दी तुम्हारी होगी। भविष्य तुम्हारा है," राम ने कहा।


राम की सेना के सामने एक बड़ी चुनौती थी। समुद्र। उसे कैसे पार करें? राम ने समुद्र से विनती की। तीन दिन बैठे रहे कि समुद्र रास्ता दे दे। वह नहीं माना तो राम को क्रोध आ गया। राम का क्रोध देखते हुए समुद्र ने उन्हें सलाह दी, "आपकी सेना में नल नाम का एक वानर है। वह पुल बना सकता है। उससे वानर सेना पार उतर जाएगी। "नल ने अगले ही दिन काम प्रारंभ कर दिया। पुल बनने लगा। वानर कँकड़, पत्थर, शिलाएँ लाते रहे। नल पुल बनाते रहे। पाँच दिन में पुल तैयार हो गया। समुद्र को दो टुकड़ों में बाँटता हुआ। उसका घमंड चूर करता हुआ। सबसे पहले विभीषण पुल से उस पार गए। पीछे-पीछे वानर सेना। सेना का अगला शिविर दूसरे तट पर बना।" असंभव! "रावण क्रोध से चीख उठा। समुद्र पर पुल कैसे बन सकता है? इस समाचार से रावण को विस्मय हुआ। भय भी। लेकिन उसने जो मन में ठान लिया था, उससे डिगा नहीं। उसने आदेश दिया, 'सेना तैयार की जाए। युद्ध का समय आ पहुँचा है। "अब दोनों सेनाएँ समुद्र के एक ही ओर थीं। उनका आमना-सामना होना शेष था। आक्रमण की तैयारी थी। रणनीति बन चुकी थी। पहले आक्रमण की योजनाओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था। राम ने अपनी सेना को चार भागों में विभक्त कर दिया। लंका के चार द्वार थे। चौतरफ़ा आक्रमण होना था। हर टुकड़ी को एक द्वार सौंपा गया। राम ने पर्वत शिखर पर चढ़कर स्वयं लंका का निरीक्षण किया। लंका के वैभव से वे भी चकित थे। उन्होंने लक्ष्मण को बताया। सूर्योदय होते ही राम ने आदेश दिया, "लंका को चारों ओर से घेर लिया जाए। "वानर सेना जयकार करती चल पड़ी। इस बीच राम ने अंगद को बुलाया। कहा, “तुम लंका जाओ। मेरे दूत बनकर। सुलह का अंतिम प्रयास करो। ताकि युद्ध टल जाए। रावण से कहो कि सीता को लौटा दे। अन्यथा उसका अंत होगा।" अंगद ने ऐसा ही किया। पर रावण नहीं माना। राम का संदेश सुनकर रावण क्रोधित हुआ। कुछ राक्षसों ने उन पर आक्रमण किया। अंगद वहाँ से बचकर राम के पास पहुँचे। कहा, “रावण को कोई पश्चाताप नहीं है। वह हमारे साथ सुलह के लिए तैयार नहीं है। युद्ध चाहता है। अब युद्ध ही एकमात्र विकल्प है। "वानर युद्ध के लिए तैयार थे। राम के आदेश की प्रतीक्षा में थे। आदेश मिलते ही उन्होंने लंका पर चढ़ाई कर दी।

उधर, रावण के आदेश पर उसकी सेना निकल पड़ी। राक्षस उतावले थे। चीत्कार कर रहे थे। रावण के जयघोष से लगा कि आसमान फट जाएगा। वे दौड़े और वानर सेना पर टूट पड़े। भयानक युद्ध हुआ। हर ओर दहला देने वाला शोर। हाथियों की चिंघाड़। घोड़ों की हिनहिनाहट। रथों की सरसराहट। कोलाहल। रथ हवा से बातें कर रहे थे। तलवारें खिच गईं थीं। बाणों से आसमान भर गया था। भाले उड़ रहे थे। दोनों ओर के कई वीर मारे गए। रावण के अनेक पराक्रमी राक्षस ढेर हो गए। धरती लाल हो गई थी। क्षत-विक्षत शव बिखरे थे। कराहते घायलों की ओर किसी का ध्यान नहीं था। शाम होने को थी। मेघनाद ने राक्षस सेना को पीछे हटते देखा। उसने अपने सैनिकों को ललकारा, "आगे बढ़ो! हम विजय के करीब हैं।" मेघनाद ने सेना का नेतृत्व सँभाल लिया। राक्षस उत्साह से आगे बढ़े। मेघनाद की दृष्टि राम-लक्ष्मण पर थी। वह छिपकर युद्ध करता था। मायावी था। किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। उसके बाण राम और लक्ष्मण को लगे। दोनों वहीं मूच्छित होकर गिर पड़े। मेघनाद ने समझा काम हो गया। उसने दोनों भाइयों को मृत समझ लिया। वह मैदान छोड़कर महल की ओर दौड़ा। रावण को इसकी सूचना देने। रणक्षेत्र में वानर राम-लक्ष्मण के पास एकत्र हो गए। वे चिंतित थे। अशुभ की आशंका से। विभीषण ने दोनों का उपचार कराया। उनकी मूर्छा टूटी। वे खड़े हुए तो वानर दल हर्ष-ध्वनि करने लगा। अगले दिन युद्ध के लिए तैयार। रावण की सेना के महाबली एक-एक कर मारे जा रहे थे। धूम्राक्ष मारा गया। वज्रद्रष्ट धरती पर गिर पड़ा। अकंपन कुचल कर मर गया। प्रहस्त को नील ने ध्वस्त कर दिया। रावण को इसकी सूचनाएँ मिलती रहीं। वह घबरा गया। वह हड़बड़ाकर उठा और स्वयं कमान संभाल ली। पहली मुठभेड़ में वह लक्ष्मण पर भारी पड़ा। लेकिन राम के बाणों ने उसका मुकुट धरती पर गिरा दिया। वह लज्जित होकर लौट गया। अब तक रावण को राम की शक्ति का कुछ अनुमान हो गया था। जब उसे कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने कुंभकर्ण को जगाया। वह महाबली था पर छह महीने सोता था। कुंभकर्ण दुर्ग से बाहर आया। उसे देखते ही वानर सेना में खलबली मच गई। वे उसे रोकने में अक्षम थे। उसने हनुमान और अंगद को घायल कर दिया। लक्ष्मण यह युद्ध देख रहे थे। उन्होंने राम की ओर देखा। फिर दोनों भाइयों ने बाणों की वर्षा कर उसे मार दिया। कुंभकर्ण रणभूमि के अंक में सो गया। सदा के लिए। रावण निराश हो गया। कुंभकर्ण पर उसे गर्व था। वह उसे अपना दाहिना हाथ मानता था। उसे लगा कि अब लंका में वीर नहीं हैं। वह अनाथ हो गई। मेघनाद ने रावण को सहारा दिया, "मेरे रहते आप क्यों चिंता करते हैं? मुझे युद्ध की अनुमति दें। मैं दोनों भाइयों को मारकर आपके चरणों में रख दूंगा। 'मेघनाद और लक्ष्मण का भीषण युद्ध हुआ। मेघनाद पराक्रमी था। उसने एक बार इंद्र को परास्त कर दिया। और इंद्रजित कहलाया। उसके बाणों ने कई प्रमुख वानरों को घायल कर दिया। मेघनाद को रोक पाना वानरसेना के बूते की बात नहीं थी। वह चक्रवात की तरह आगे बढ़ता। जो भी आसपास होता, ध्वस्त हो जाता। वानर सेना मेघनाद की गति और शक्ति से चकित थी। चमत्कृत। उनके मन में निराशा बैठती जा रही थी। तब लक्ष्मण ने उसे चुनौती दी। दोनों का निशाना अचूक था। बाण हवा में टकराते और नष्ट हो जाते। अचानक लक्ष्मण का एक बाण उसे लगा। वह घायल हो गया। झुक गया। लक्ष्मण ने ताबड़तोड़ बाणों की बरसात कर दी।

आगे बढ़ना कठिन था। मेघनाद पीछे मुड़ा। महल की ओर भागा। लक्ष्मण ने कुछ दूर तक उसका पीछा किया। फिर रुक गए। मेघनाद महल में घुस गया। लक्ष्मण को महल की संरचना नहीं पता थी। रास्ता नहीं मालूम था। विभीषण लक्ष्मण की दुविधा समझ गए। उन्होंने एक गुप्त मार्ग दिखाया। शेष काम आसान था। मेघनाद महल में ही मारा गया। अपने ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु से रावण एकदम टूट गया। विलाप करने लगा। मूछित हो गया। होश आया तो उसकी दशा पागलों जैसी थी। क्रोध से बिलबिलाता हुआ। “लंका अनाथ हो गई। अब उसका कोई सहारा नहीं। अब मैं स्वयं रणक्षेत्र में जाऊँगा। "लक्ष्मण के साथ वानर सेना भी महल में प्रवेश कर गई थी। उनके हाथों में जलती हुई मशालें थीं। वानरों ने लंका में जहाँ-तहाँ आग लगा दी। अन्न भंडार फूंक दिए। शस्त्रागार जला दिया। मारकाट मच गई। जो भी सामने पड़ा , मारा गया। कंपन, प्रजंघ, यूपाक्ष, कुंभ मारे गए। हनुमान ने निकुंभ, देवांतक और त्रिशिरा को मौत की नींद सुला दिया। अंगद ने नरांतक का काम तमाम कर दिया। लक्ष्मण ने अतिकाय का सिर काट डाला। राक्षस सेना भाग खड़ी हुई।

रावण के पास अब कोई विकल्प नहीं था। युद्धनाद हुआ। अकेला बचा रावण युद्ध के लिए निकला। फुफकारते हुए। फन कुचले साँप की तरह। वह जिधर मुड़ता, भगदड़ मच जाती। वानरों को भागते देख लक्ष्मण आगे आए। धनुष-बाण लिए। रावण के सामने अभेद्य दीवार की तरह खड़े हो गए। थोड़ी ही देर में विभीषण वहाँ पहुँच गए। उसके बाद राम। उनके सामने रावण की एक न चली। विभीषण को राम की सेना में देख रावण उबल पड़ा। उसके लिए यह देशद्रोह था। छोटे भाई का विश्वासघात। उसने विभीषण पर निशाना लगाया। लक्ष्मण ने वह बाण बीच में ही काट दिया। उसने दूसरा घातक बाण चलाया। इस बार लक्ष्मण बीच में आ गए। उन्होंने विभीषण को अपने पीछे छिपा लिया। बाण लगते ही लक्ष्मण अचेत हो गए। गिर पड़े। राम ने यह देखा। उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गईं। आग बरसने लगी। उन्होंने लक्ष्मण को सुग्रीव की निगरानी में छोड़ा और रावण को चुनौती दी। कहा, "रावण! काल तुझे मेरे सामने ले आया है। आज अन्याय पर न्याय की विजय होगी। तेरा अंत निश्चित है। "उधर, हनुमान लक्ष्मण को उठाकर रणक्षेत्र से दूर ले गए। वैद्य सुषेण को बुलाया। हनुमान संजीवनी बूटी लाए। चिकित्सा शुरू हुई। धीरे-धीरे रक्त का रिसाव बंद हो गया। घाव भर गया। संजीवनी का प्रभाव चमत्कारी था। सुग्रीव ने लक्ष्मण के स्वस्थ होने की सूचना राम तक पहुँचाई। वह सिंह की भाँति रावण पर टूट पड़े। राम-रावण युद्ध भयानक था। शस्त्रों की गति से कँपा देने वाली ध्वनियाँ निकल रही थीं। हवा थम गई थी। सूरज बादलों के पीछे छिप गया था। शस्त्रों की चमक बिजली की तरह कौंध रही थी। गड़गड़ाहट थी। थर्रा देने वाली। दोनों योद्धा अपनी पूरी शक्ति से लड़ रहे थे। कोई एक रत्ती भी पीछे खिसकने को तैयार नहीं। कुछ ही देर में लगा कि युद्ध समाप्त होने को है। दोनों पक्ष के योद्धा हाथ बाँध कर खड़े हो गए। छोटे-छोटे युद्ध थम गए। सबकी नजरें राम और रावण पर थीं। सबकी आँखें फटी रह गईं। पलकें झुकना भूल गईं। उन्होंने ऐसा युद्ध पहले कभी नहीं देखा था। लेकिन महासंग्राम समाप्त नहीं हुआ था। रावण का एक बाण राम को लगा। उनके रथ की ध्वजा कटकर गिर पड़ी। राम ने प्रहार किया। बाण रावण के मस्तक में लगा। रक्त की धारा बह निकली। बीच में युद्ध कुछ पल के लिए रुका। रावण अपने महल चला गया। घोड़े और रथ बदलने। राम को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी। युद्ध फिर शुरू हुआ। अब उनके रथ एक-दूसरे के सामने थे। योद्धा आँखों में आँखें डालकर देख सकते थे। घोड़ों के मुँह मिल गए थे। राम के बाणों ने रावण के रथ का मुँह मोड़ दिया। यह पराजय का संकेत था। रावण हिम्मत हारने लगा। जब तक वह रथ घुमाता, राम का एक बाण उसके पार निकल गया। रथ मुड़ा। लेकिन रावण के हाथ से धनुष छूट गया। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। मारा गया। बची हुई राक्षस सेना हड़बड़ा गई। जान बचाकर भागी। उनका दिशा-ज्ञान शून्य हो गया। जिसे जिधर अवसर मिला, भागा। कुछ राक्षस वानर सेना की ओर दौड़ पड़े। कुछ भागते हुए समुद्र में जा गिरे। लंका विजय अभियान पूरा हुआ। राम की जयकार होने लगी। कुछ समय पूर्व का रणक्षेत्र एकदम बदल गया। शस्त्रों की टंकार की जगह किलकारियों ने ले ली। वानर सेना उछल-कूद करने लगी। समुद्र से ठंडी हवा आ रही थी। शस्त्रों से उत्पन्न गरमी वह अपने साथ बहा ले गई। कोलाहल तुमुलनाद में परिवर्तित हो गया। प्रसन्नता सर्वव्याप्त थी।


रणक्षेत्र में केवल एक व्यक्ति दु:खी था। शोक से व्याकुल। विलाप करता हुआ। अपने भाई के मृत शरीर के पास खड़ा। राम ने विभीषण को समझाया, "मित्र, शोक मत करो। रावण महान योद्धा था। उसकी अंत्येष्टि महानता के अनुरूप होनी चाहिए। मृत्यु सत्य है। उसे स्वीकार करो। "राम ने एक-एक वानर का आभार माना। सुग्रीव को गले लगा लिया। लक्ष्मण से विभीषण के राज्याभिषेक की तैयारी करने को कहा। चाहते थे कि रावण की अंत्येष्टि के बाद राजतिलक हो। उसमें विलंब न किया जाए। उन्होंने हनुमान को बुलाया। अशोक वाटिका जाने का निर्देश दिया। "यह संदेश आपको ही सीता तक पहुँचाना है। उन्हें लंका विजय का समाचार दीजिए। उनका संदेश लेकर शीघ्र आइए।" विभीषण के अंत्येष्टि से लौटने तक उनके राज्याभिषेक की तैयारी हो चुकी थी। लक्ष्मण राजमहल पहुँच गए थे। वानर स्वर्ण-कलश में समुद्र का पानी ले आए थे। लक्ष्मण विभीषण के पास गए। उन्हें साथ लेकर राजसिंहासन तक आए। सोने का चमचमाता हुआ सिंहासन। रत्नों-मणियों जटित। समुद्र जल से उन्होंने सभासदों के सामने विभीषण का अभिषेक किया। अब विभीषण लंका के राजा थे।

इस बीच, हनुमान अशोक वाटिका से लौट आए। राम के पास। उन्होंने कहा, “माता सीता लंका विजय का समाचार सुनकर प्रसन्न हुईं। वे आपसे मिलने के लिए अधीर हैं। "तब तक विभीषण वहीं आ गए थे। राम उनकी ओर मुड़े। कहा, "लंकापति, सीता अब भी आपकी अशोक वाटिका में हैं। उन्हें यहाँ लाने की व्यवस्था की जाए। "वानर सेना चुहल कर रही थी। अठखेलियों में लगी थी। राम का निर्देश सुनकर उनकी  उत्सुकता बढ़ गई।  सुग्रीव, जामवंत और नल-नील भी उत्सुक थे। अंगद को प्रतीक्षा थी। हनुमान को  छोड़कर किसी ने सीता को नहीं देखा था। सीता आईं तो सबको अपनी कल्पनाओं से अधिक लगीं। सुंदर, सौम्य, शांत। उस सुंदरता में एक वर्ष बाद पति से मिलन की प्रसन्नता शामिल थी। कष्ट इतिहास हो गया था।

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बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

हनुमान उठे। अंगड़ाई ली। झुककर धरती को छुआ। और एक ही छलाँग में महेंद्र पर्वत पर जा खड़े हुए। जामवंत सफल हो गए थे। हनुमान को उनकी शक्ति की याद दिलाने में। पर्वत शिखर पर खड़े हनुमान ने विराट समुद्र की ओर देखा। उनकी आँखों में चुनौती का भाव नहीं था। समर्पण का था। राम के प्रति। समुद्र यह देखकर डर गया। उसकी गरिमा नष्ट होने को थी। हनुमान ने पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अपने पिता को प्रणाम किया। हाथ हवा में उठाए। पर्वत पर झुककर उसे हाथ-पैर से कसकर दबाया और छलाँग लगा दी। अगले ही पल वह आकाश में थे। समुद्र के ऊपर। तेज़ी से आगे बढ़ते हुए। छलाँग के समय बड़े शिलाखंड आसमान में उड़ गए। कुछ दूर हनुमान के साथ गए। जैसे परिजन किसी को विदा करने जाते हैं। 

हनुमान की गति अधिक थी। पत्थर पीछे छूटे और समुद्र में जा गिरे। महेंद्र पर्वत सुंदर था। वनस्पतियों और जीव-जंतुओं से भरा। उसका शिखर पथरीला था। लेकिन नीचे घाटी में मनमोहक वृक्ष थे। लताएँ थीं। हनुमान के छलाँग लगाने तक पर्वत शांत था। निश्चल। छलाँग के दबाव से पर्वत दरक गया। वृक्ष काँपकर गिर गए। वन थर्रा गया। बड़ी-बड़ी चट्टानें नीचे लुढ़कने लगीं। पशु-पक्षी चीत्कार करते हुए भागे। कई स्थानों पर जल-स्रोत फूट पड़े। कहीं धुआँ उठने लगा। चट्टानें दहक उठीं। लाल हो गईं। आग के गोलों की तरह। हनुमान इससे बेखबर थे। वायु की गति से आगे बढ़ रहे थे। मार्ग में उन्होंने दिशा बदली। लंका जाने के लिए। उनका शरीर हिला तो बादलों की सी गड़गड़ाहट हुई। वे जहाँ से निकलते सब कुछ अस्थिर हो जाता। समुद्र में ऊँची लहरें उठने लगतीं। उनकी परछाईं समुद्र में विराट नाव की तरह दिखती। बिना आवाज़ चलती हुई। समुद्र के अंदर एक पर्वत था। मैनाक। सुनहरा। चमकता हुआ। वह जलराशि को चीरकर ऊपर उठा। मैनाक चाहता था कि हनुमान कुछ पल वहाँ विश्राम कर लें। थक गए होंगे। हनुमान नहीं रुके। उन्हें मैनाक की सदिच्छा बाधा लगी। राम काज में। वह मैनाक से टकराते हुए निकल गए। हाथ ऊपरी हिस्से पर लगा तो पर्वत शिखर टूट गया। वह कुछ और ऊपर उठकर उड़ने लगे। हनुमान के रास्ते में कई बाधाएँ आईं। राक्षसी सुरसा मिली। विराट शरीर। वह हनुमान को खा जाना चाहती थी। पवन पुत्र ने उसे चकमा दिया। उसके मुँह में घुसकर निकल आए। आगे एक और राक्षसी टकराई। उसका नाम सिंहिका था। छाया राक्षसी। उसने जल में हनुमान की परछाईं पकड़ ली। वह अचानक आसमान में ठहर गए। क्रुद्ध हनुमान ने सिंहिका को मार डाला। आगे बढ़े। अब गंतव्य दूर नहीं था। दूर क्षितिज पर लंका दिखाई पड़ने लगी थी। 

रावण की राजधानी। सोने की लंका। आकाश में उठते हुए कंगूरे। उसकी प्राचीर। लंका जगमगा रही थी। हनुमान समुद्र के किनारे उतर गए। अब वह लंका को और निकट से देख पा रहे थे। हनुमान को थकान रंचमात्र नहीं थी। इतनी लंबी यात्रा का उन पर कोई प्रभाव नहीं था। चिंता थी कि सीता को कैसे ढूँढेंगे। कैसे पहचानेंगे ? लंका नगरी को ठीक से देखने के लिए हनुमान एक पहाड़ी पर चढ़ गए। दृष्टि दौड़ाई। चारों ओर वृक्ष। सुवासित उद्यान। भव्य भवन। हवा में लहराती संगीत धाराएँ। वे चकित थे। राक्षस नगरी में इतनी सुंदरता! उन्होंने ऐसा नगर पहले कभी नहीं देखा था। वह उस नगर का एक-एक विवरण आँखों में भर लेना चाहते थे। ताकि बाद में वह सीता की खोज में काम आए। दिन के समय लंका में प्रवेश करना हनुमान को उचित नहीं लगा। उन्होंने प्रतीक्षा की। समुद्र तट पर ही। शाम ढलने पर नगरी में प्रवेश किया। उनके सामने पहला प्रश्न सीता का पता लगाना था। उस विराट नगर में यह काम आसान नहीं था। वृक्षों-डालियों से कूदते-फाँदते वह नगर के मध्य में पहुँच गए। राजमहल वहीं था। उनका अनुमान था कि सीता महल में ही होंगी। रावण ने उन्हें छिपाकर रखा होगा। किसी कोने में। महल में पहरेदार थे। अस्त्र-शस्त्र लिए हुए। सबकी आँख बचाकर वह चुपचाप अंदर आ गए। राजमहल विराट था। वैभवपूर्ण। वे बचते-बचाते महल में घूमने लगे। भटकते रहे। रात का समय था। 

अधिकतर राक्षस सो रहे थे। उन्होंने निकट जाकर एक-एक चेहरा देखा। सीता जैसी कोई स्त्री उन्हें नहीं दिखाई पड़ी। वे रावण के कक्ष में गए। वहाँ रावण था। उसकी रानी मंदोदरी थी। सीता नहीं थीं। 'न जाने सीता को कहाँ छिपा रखा है, 'सोचते हुए हनुमान अंत : पुर से बाहर निकल आए। एक-एक करके उन्होंने राक्षसों के सारे घर छान मारे। पशुशालाएँ भी देख लीं। सीता का कहीं पता न था। सीता के लंका में होने की सूचना पर उन्हें संदेह नहीं था। पर वह दुखी हो गए। सोचने लगे। 'रावण ने अवश्य सीता को कहीं छिपा दिया है। किसी गुप्त स्थान पर। मैं उन्हें ढूँढ निकालूँगा। उनसे मिले बिना नहीं लौटूंगा, 'उन्होंने तय किया। अंत: पुर के बाहर हनुमान ने रावण का रथ देखा। स्वर्ण रथ। रत्नों से सजा हुआ। वे चकित रह गए। तभी उनका ध्यान अंत:पुर से लगी वाटिका की ओर गया। वहाँ अशोक के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे। आकाश छूने को आतुर। यही अशोक वाटिका थी। दीवार लाँघकर वे वहाँ पहुँचे। लंका में यही एक स्थान बचा था, जो उन्होंने नहीं देखा था। उन्हें लगा सीता वाटिका में नहीं हो सकतीं। रावण उन्हें इतनी खुली जगह क्यों रखेगा? हनुमान में निराशा घर करती जा रही थी। वह एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गए। दिन चढ़ आया था। ऐसे में नीचे उतरना उन्हें उचित नहीं लगा। पेड़ घना था। वे उसके पत्तों में छिप गए। उन्हें वहाँ से सब कुछ दिखता था। लेकिन उन्हें कोई नहीं देख सकता था। रात हो आई। अचानक वाटिका के एक कोने से उन्हें अट्टहास सुनाई पड़ा। वे राक्षसियाँ थीं। हनुमान उधर ही देखने लगे। एक वृक्ष के नीचे राक्षसियों का झुंड था। वे किसी बात पर ठहाके लगा रही थीं। हनुमान को लगा कि वे सीता पर हँस रहीं हैं। वह पेड़ से चिपककर नीचे की डाली पर आए। ध्यान से देखा। 

राक्षसियों के बीच एक स्त्री बैठी है। चेहरा मुरझाया हुआ। उदास। दयनीय। दुर्बल। शोकग्रस्त। 'यही माँ सीता है, 'उन्होंने मन में सोचा। उन्हें अब कोई संदेह नहीं था। राक्षसियाँ वहीं थीं। हट नहीं रही थीं। हनुमान उतावले थे। पर नीचे उतरने में डर था। स्वयं उनके लिए। सीता के लिए भी। तभी उन्होंने रावण को आते देखा। राजसी ठाट-बाट के साथ। दासियों सहित। हनुमान सीता से भेंट किए बिना लौटना नहीं चाहते थे। ‘ऐसे लौटा तो राम को क्या बताऊँगा?' उन्होंने सोचा। नीचे उतरने का अवसर ही नहीं मिल रहा था। वे डाल से चिपक गए। साँस रोककर। रावण के लौटने की प्रतीक्षा में। रावण ने सीता को बहलाया। फुसलाया। लालच दिया। सीता नहीं डिगीं। वह डर से काँप रही थीं पर उन्होंने रावण की एक न सुनी। तिरस्कार किया। रावण ने कहा, 'तुम्हें डरने की आवश्यकता नहीं है, सुमुखी! मैं तुम्हें स्पर्श नहीं करूँगा, जब तक तुम स्वयं ऐसा नहीं चाहोगी। मैं तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहता हूँ। मेरी बात मान लो और सुख भोग करो। अन्यथा मैं तुम्हें तलवार से काट डालूँगा। सोच लो, तुम्हारे पास अब केवल दो महीने बचे हैं।" "ऐसा कभी नहीं होगा, दुष्ट! राम के सामने तुम्हारा अस्तित्व ही क्या है? मुझे राम के पास पहुँचा दो। वे तुम्हें क्षमा कर देंगे। तुमने ऐसा नहीं किया तो सर्वनाश निश्चित है। तुमने अपराध किया है। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। मूर्ख राक्षस! तुम्हारा अंत निकट है।" रावण क्रोध में पैर पटकता हुआ चला गया। रात गाढ़ी………….. होती जा रही थी। रावण के जाने पर राक्षसियों ने सीता को घेर लिया। उन्हें डराने-धमकाने लगीं। बोलीं, "तुम मूर्ख हो। रावण का प्रस्ताव अस्वीकार कर रही हो। यह रावण की नगरी है। तुम्हारा राम यहाँ कभी नहीं पहुँच सकता। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। "राक्षसियों में एक त्रिजटा थी। सबसे भिन्न। उसने कहा, "मैंने एक सपना देखा है। पूरी लंका समुद्र में डूब गई है। सब नष्ट हो गया है। यह सपना अच्छा नहीं है। कहीं यह सीता के दुख से जुड़ा तो नहीं है?" सीता की हिचकियाँ बँध गईं। वह विलाप करने लगीं। देर रात राक्षसियाँ एक-एक कर चली गईं। सीता वाटिका में अकेली थीं। यह अच्छा अवसर था। पर हनुमान पेड़ से नहीं उतरे।' कहीं सीता मुझे भी राक्षस न समझ लें। मायावी चाल मान लें,' उन्होंने सोचा। पेड़ पर बैठे-बैठे उन्होंने राम-कथा प्रारंभ की। राम का गुणगान। रावण की लंका में राम-चर्चा सुनकर सीता चौंकीं। उन्होंने ऊपर देखा, जिधर से आवाज़ आ रही थी। पूछा, 'कौन हो तुम?" हनुमान नीचे उतर आए। उन्होंने सीता को प्रणाम किया। राम की अंगूठी उन्हें दी। कहा, "हे माता! मैं श्रीराम का दास हूँ। किष्किंधा के वानरराज सुग्रीव का अनुचर। उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है। आपका समाचार लेने। "हनुमान को लेकर सीता के मन में अब भी शंका थी। उन्होंने पर्वत पर फेंके आभूषणों की याद दिलाकर संदेह दूर कर दिया। सीता ने राम का कुशल-क्षेम पूछा। कई प्रश्न किए। हनुमान उन्हें कंधे पर बैठाकर राम के पास ले जाना चाहते थे। सीता ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा, "यह उचित नहीं होगा, पुत्र। पकड़े गए तो मेरा संदेश भी राम तक नहीं पहुँचेगा।"


हनुमान ने सीता से विदा ली। वह पूरी सूचना तत्काल राम तक पहुँचाना चाहते थे। चलते समय सीता ने अपना एक आभूषण उन्हें दे दिया। उनकी आँखें नम थीं। हनुमान ने कहा, “निराश न हों, माते! श्रीराम दो माह में यहाँ अवश्य पहुँच जाएँगे।" हनुमान राम के पास लौटने को उद्यत थे। उत्तर दिशा की ओर जाना था। पर कुछ सोचकर रुक गए। उन्होंने रावण का उपवन तहस-नहस कर दिया। अशोक वाटिका उजाड़ दी। वृक्ष उखाड़ दिए। और विरोध करने वाले सभी राक्षसों को मार डाला। रावण के कई महाबली मारे गए। हनुमान से लड़ते हुए रावण का पुत्र अक्षकुमार भी प्राण गँवा बैठा। राक्षस भागे-भागे राजमहल गए। रावण को इसकी सूचना दी। एक वानर के उत्पात के बारे में बताया। रावण तिलमिला गया। उसके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। उसने मेघनाद को भेजा। अपने सबसे बड़े बेटे को। कहा, "उस वानर को मेरे सामने उपस्थित करो। उसने जघन्य अपराध किया है। "मेघनाद ने हनुमान से भीषण युद्ध किया। वह इंद्रजित था। एक बार इंद्र को परास्त कर चुका था। उसने अंततः हनुमान को बाँध लिया। राक्षस उन्हें खींचते हुए रावण के दरबार में ले आए।

"शक्तिशाली रावण सिंहासन पर बैठा था। उसके सेनापति ने पूछा , " कौन हो तुम? किसने तुम्हें यहाँ भेजा है?" हनुमान के मन में भय नहीं था, "मैं श्रीराम का दास हूँ। मेरा नाम हनुमान है। आप श्रीराम की पत्नी सीता को हर लाए हैं। मैं उन्हीं की खोज में आया था। उनसे मैं मिल चुका। आपके दर्शन करना चाहता था। इसलिए उत्पात करना पड़ा। इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। दंड के भागी तो राक्षस हैं। उन्होंने मुझे रोकने का प्रयास किया। ' क्रोध में रावण हनुमान को मारने उठा। छोटे भाई विभीषण ने उसे रोक दिया। कहा, “आप नीतिवान हैं, राजन्! नीति के अनुसार दूत का वध अनुचित है। आप उसे कोई दूसरा दंड दे दें।" हनुमान ने रावण को पुनः प्रणाम किया "मेरा एक निवेदन है। आप सीता को सम्मान सहित लौटा दें। इसी में आपका कुशल है। धनुर्धर राम से आप युद्ध नहीं जीत सकते। "रावण ने हनुमान की पूँछ में आग लगा देने की आज्ञा दी। राक्षसों ने आग लगा दी। जलती हुई पूँछ के साथ उन्हें नगर में घुमाया। राक्षस ठिठोली कर रहे थे। 

इसी बीच हनुमान ने बंधन तोड़ दिए। एक भवन पर चढ़कर उसमें आग लगा दी। एक से दूसरी अटारी पर कूदते उन्होंने सभी भवन जला दिए। हाहाकार मच गया। लंका जल रही थी। धू-धू कर। राक्षस विलाप करने लगे। अचानक हनुमान को सीता की चिंता हुई। वे अशोक वाटिका की ओर भागे। डर था कि कहीं आग उन तक न पहुँच गई हो। सीता सकुशल थीं। पेड़ के नीचे बैठी हुईं। आग से अप्रभावित। हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया। आशीर्वाद माँगा। और उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। राम के पास। दूसरे तट पर सभी हनुमान की प्रतीक्षा कर रहे थे। अंगद। जामवंत। अन्य वानर। आते ही उन्हें सबने घेर लिया। हनुमान ने संक्षेप में लंका का हाल सुनाया। सीता से भेंट का क्रम बताया। कहा, "मैंने उन्हें देखा। बात की। यह समाचार शीघ्र श्रीराम तक पहुँचाना चाहिए। समय अधिक नहीं है।" वानर किलकारियाँ भरने लगे। प्रसन्नता में वानरों का उत्पात बढ़ गया। उन्होंने मार्ग के कई वन उजाड़े। फल खाए और फेंके। दौड़ते हुए चले। और किष्किंधा पहुँच गए। राम के पास। वानरों को साथ लेकर सुग्रीव वहाँ पहुँचे। हनुमान ने राम को सीता द्वारा दिया गया आभूषण दिया। राम की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने हनुमान से कई प्रश्न किए। वे कैसी हैं? कैसे रहती हैं? उन्होंने कोई संदेश भेजा है? हनुमान ने पूरी बात विस्तार से कही। कहा, "मैंने उनसे भेंट की। वे व्याकुल हैं। चिंतित हैं। हर समय राक्षसों से घिरी रहती हैं। आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। उन्होंने कहा, 'यदि श्रीराम दो माह में यहाँ नहीं आए तो पापी रावण मुझे मार डालेगा'। "राम शोक में डूब गए। भाव विह्वल होकर उन्होंने हनुमान को गले से लगा लिया। आँसू रोक नहीं पाए। लक्ष्य स्पष्ट था। लंका पर आक्रमण। समय कम था। सुग्रीव ने युद्ध की तैयारियाँ तत्काल प्रारंभ करने का निर्देश दिया। वानर सेना इसके लिए पहले से तैयार थी। उत्साहित थी। इस बार उन्हें अलग-अलग टोलियों में बाँटने की आवश्यकता नहीं थी। अलग दिशाओं में नहीं जाना था। सबका लक्ष्य एक था। दिशा एक थी। दक्षिण। सुग्रीव ने लक्ष्मण के साथ बैठकर युद्ध की योजना पर विचार किया। योग्यता और उपयोगिता के आधार पर भूमिकाएँ निर्धारित हुईं। हनुमान, अंगद, जामवंत, नल और नील को आगे रखा गया। समुद्र पर चर्चा हुई। उसे कैसे पार करेंगे? सेना का हर वानर हनुमान नहीं था। यह एक चुनौती थी। देर रात तक चर्चा का विषय रही।

मंगलवार, 18 मई 2021

राम और सुग्रीव | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | RAM AUR SUGREEV | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN | किष्किध कांड |

राम और सुग्रीव 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

राम और लक्ष्मण का अगला पड़ाव ऋष्यमूक पर्वत था। सुग्रीव वहीं रहते थे। कबंध और शबरी की बात दोनों भाइयों को याद थी। दोनों ने सुग्रीव से मिलने की सलाह दी थी। कहा था कि वे सीता की खोज में सहायक होंगे। दोनों राजकुमार शीघ्रता से वहाँ पहुँचना चाहते थे। 

सुग्रीव का मूल निवास ऋष्यमूक पर्वत नहीं था। किष्किधा था। ऋष्यमूक में वह निर्वासन में अपना समय बिता रहे थे। सुग्रीव किष्किधा के वानरराज के छोटे पुत्र थे। बड़े भाई का नाम बाली था। पिता के न रहने पर ज्येष्ठ पुत्र बाली राजा बना। पहले दोनों भाइयों में बहुत प्रेम था। राजकाज में किसी बात को लेकर मनमुटाव हुआ। फिर झगड़ा हो गया। इतना गंभीर कि बाली सुग्रीव को मार डालने पर उतर आया। जान बचाने के लिए सुग्रीव को ऋष्यमूक आना पड़ा। 

ऋष्यमूक आकर भी सुग्रीव का डर कम नहीं हुआ था। वह चौकस रहता था। विश्वासपात्र वानर सेना निरंतर पहरे पर रहती थी। सुग्रीव स्वयं भी पहरा देता था। इस डर से कि कहीं बाली के गुप्तचर सैनिक वहाँ न पहुँच जाएँ। एक दिन सुग्रीव पहाड़ी पर खड़ा था। उसने दो युवकों को उधर आते देखा। "ये दोनों अवश्य बाली के गुप्तचर होंगे। मुझे मारने आ रहे होंगे।" सुग्रीव ने तत्काल अपने साथियों को बुलाया।" हमें ऋष्यमूक छोड़ देना चाहिए। यह स्थान अब सुरक्षित नहीं है। बाली यहाँ भी आ धमका है, "सुग्रीव ने अपने साथियों से कहा। "मैंने दो युवकों को इधर आते देखा है। उनके हाथों में धनुष हैं।" सुग्रीव घबराया हुआ था। पर उसके प्रमुख साथी हनुमान इससे सहमत नहीं थे। "मैं जाकर पता लगाता हूँ कि वे कौन हैं। बाली की सेना में ऐसे सैनिक नहीं हैं," हनुमान ने भी दोनों युवकों को देख लिया था। हनुमान पर सुग्रीव को भरोसा था। उसने बात मान ली। 

राम और लक्ष्मण पहाड़ी पर चढ़ते-चढ़ते थक गए थे। वे पहाड़ी सरोवर के पास रुके। थकान मिटाने। मुँह-हाथ धोने। तभी भेस बदलकर हनुमान वहाँ पहुँच गए। शिष्टता से प्रणाम किया। पूछा, “आप दोनों कौन हैं? वन में क्यों भटक रहे हैं? आपका भेस मुनियों जैसा है लेकिन चेहरे से राजकुमार लगते हो।

"हम सुग्रीव से मिलने जा रहे हैं। हमें उनकी सहायता की आवश्यकता है। क्या आप उन्हें जानते हैं?" राम ने विनम्रता से पूछा। प्रारंभिक बातचीत में ही हनुमान स्थिति भाँप गए। वे अपने मूल रूप में आ गए। प्रणाम करते हुए बोले, "मैं हनुमान हूँ। सुग्रीव का सेवक। उन्होंने आपका परिचय जानने के लिए यहाँ भेजा था। "लक्ष्मण ने उन्हें अपना परिचय दिया। वन में आने का कारण बताया। यह भी बताया कि वे कबंध और शबरी की सलाह पर आए हैं। सुग्रीव से मिलने। उनसे सहायता माँगने। हनुमान के चेहरे पर हलकी-सी मुसकराहट आ गई। कोई उससे सहायता माँगने आया है, जिसे स्वयं सहायता चाहिए। हनुमान समझ गए। राम और सुग्रीव की स्थिति एक जैसी है। दोनों को एक-दूसरे की सहायता चाहिए। वे मित्र हो सकते हैं। एक अयोध्या से निर्वासित है, दूसरा किष्किधा से। एक की पत्नी को रावण उठा ले गया है। दूसरे की पत्नी उसके भाई ने छीन ली है। दोनों के पिता नहीं हैं। 

हनुमान ने राम और लक्ष्मण को कंधे पर बैठाया। कुछ ही पल में वे ऋष्यमूक के शिखर पर पहुँच गए। हनुमान ने दोनों को सुग्रीव से मिलाया। दोनों ने अग्नि को साक्षी मानकर मित्रता का वचन लिया। सुग्रीव ने कहा, “आज से हमारे सुख-दु:ख साझा हैं। "राम ने सुग्रीव को सीता-हरण के संबंध में बताया तो सुग्रीव अचानक उठ खड़े हुए। उन्हें कुछ याद आया। बोले, “वानरों ने मुझे एक स्त्री के हरण की बात बताई थी। वह निश्चित रूप से सीता ही रही होंगी। रावण का रथ इसी पर्वत के ऊपर से गया था। "राम और लक्ष्मण ध्यान से उनकी बात सुन रहे थे। सुग्रीव बोलते रहे, “सीता स्वयं को रावण के चंगुल से छुड़ाने का यत्न कर रही थीं। वानरों को देखकर उन्होंने अपने कुछ आभूषण नीचे फेंक दिए थे। "गहनों की एक पोटली राम के सामने रखते हुए उन्होंने कहा, “देखिए, क्या ये गहने सीता के हैं?" राम ने आभूषण तुरंत पहचान लिए। कुछ गहने लक्ष्मण ने भी पहचाने। गहने देखकर राम शोक सागर में डूब गए। उनके मुँह से निकला, “धिक्कार है मुझे, हे सीते! मैं संकट में तुम्हारी रक्षा नहीं कर सका। मेरा पौरुष, बल, पराक्रम, ज्ञान तुम्हारे काम नहीं आया। "सुग्रीव ने उन्हें सांत्वना दी।“ सीता अवश्य मिल जाएँगी। मैं हर प्रकार से आपकी सहायता करूँगा, मित्र। रावण का सर्वनाश निश्चित है।" राम के बाद सुग्रीव ने अपनी व्यथा-कथा सुनाई। “बाली ने मुझे राज्य से निकाल दिया है। मेरी स्त्री छीन ली। मेरा वध करने की चेष्टा कर रहा है। संकट के समय हनुमान, नल और नील ने मेरा साथ दिया। मुझे कभी नहीं छोड़ा।" उसने राम से सहायता माँगी। राम बोले, "चिंता मत करो मित्र। तुम्हें अपना राज्य भी मिलेगा और स्त्री भी। 

"राम देखने में सुकुमार थे।" उन्हें देखकर उनकी शक्ति का पता नहीं चलता था। सुग्रीव को राम के आश्वासन पर भरोसा नहीं हुआ। “बाली महाबलशाली है। उसे हराना इतना आसान नहीं है। वह शाल के सात वृक्षों को एक साथ झकझोर सकता है।" राम ने कोई उत्तर नहीं दिया। धनुष उठाया और तीर चला दिया। शाल के सातों विशाल वृक्ष एक ही बाण से कटकर गिर पड़े। इस शक्ति प्रदर्शन पर सुग्रीव ने हाथ जोड़ लिए। राम ने कहा, "मित्र! अब "विलंब कैसा? बाली को युद्ध के लिए ललकारो। किष्किधा की राजगद्दी का निर्णय उसी युद्ध में हो जाएगा। "सुग्रीव चिंतित हो गए। युद्ध में बाली को हराना असंभव था। राम बोले, “चिंता मत करो मित्र। मैं पेड़ की ओट से युद्ध देलूँगा। जब तुम पर संकट आएगा, तुम्हारी सहायता करूँगा। बाली की मृत्यु मेरे ही बाण से होगी। वह मारा जाएगा। योजना बनाकर सब किष्किंधा पहुँच गए। सुग्रीव आगे था। राम, लक्ष्मण और हनुमान छिप गए थे। 'मेरे पीछे राम की शक्ति है, 'सोचते हुए उसने बाली को ललकारा। बाली के क्रोध की सीमा न रही। वह गरजता हुआ निकला। “आज शिकार स्वयं मेरे मुँह तक आया है। मैं तुझे नहीं छोडूंगा।" भीषण मल्ल युद्ध हुआ। दोनों एक-दूसरे से गुंथ गए। युद्ध में बाली भारी पड़ रहा था। लगता था सुग्रीव का अंत निश्चित है। राम पेड़ के पीछे खड़े थे। धनुष हाथ में था। पर उन्होंने तीर नहीं चलाया। सुग्रीव वहाँ से किसी तरह जान बचाकर भागा। सीधा ऋष्यमूक पर्वत आकर रुका। राम, लक्ष्मण और हनुमान भी लौट आए। सुग्रीव राम पर कुपित था। “यह धोखा है। आपने मेरे साथ धोखा किया। समय पर बाण नहीं चलाया। मैं नहीं भागता तो आज वह मुझे मार डालता। "राम की कठिनाई दूसरी थी। वे दुविधा में थे। उन्होंने सुग्रीव को समझाया, “तुम दोनों भाइयों के चेहरे मिलते-जुलते हैं। दूर से दोनों एक जैसे लगते हो। मैं बाली को पहचान नहीं पाया। बिना पहचाने बाण चलाता तो वह तुम्हें भी लग सकता था। मैं इस चूक के लिए तैयार नहीं था। मैं अपने मित्र को खोना नहीं चाहता था। 

"लक्ष्मण ने समझा-बुझाकर सुग्रीव को तैयार किया। एक और युद्ध के लिए। राम ने कहा, “जाओ मित्र! इस बार बाली को पहचानने में चूक नहीं होगी। इस बार उसका अंत निश्चित है। "सुग्रीव डरा हुआ था। घबराहट थी। पर राम के कहने पर तैयार हो गया। किष्किंधा पहुँचकर उसने बाली को चुनौती दी। ललकारा। बाली को सुग्रीव का यह साहस समझ में नहीं आया। वह अंत: पुर में था। अपनी पत्नी रानी तारा के साथ। बाली जाने लगा तो तारा ने उसे समझाने का प्रयास किया। जाने से मना किया। बाली ने उसकी बात नहीं मानी। पैर पटकता बाहर आया। क्रोध से उबल रहा था। बाली ने हाथ हवा में उठाया। मुट्ठी भिंची हुई थी। वह एक घूसे से सुग्रीव का काम तमाम कर देता। तभी राम का बाण उसकी छाती में लगा। वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा। बाली के गिरने पर राम, लक्ष्मण और हनुमान पेड़ों की ओट से बाहर निकल आए। आनन-फानन में राज्याभिषेक की तैयारियाँ की गईं। सुग्रीव को राजगद्दी मिली। राम की सलाह पर बाली के पुत्र अंगद को युवराज का पद दिया गया। राम ने सुग्रीव के लिए संबोधन बदल दिया। राजगद्दी पर बैठने के बाद उन्हें 'मित्र' नहीं कहा। 'वानरराज' कहकर संबोधित किया। सुग्रीव का मन था कि राम कुछ समय वहीं रहें। उनके साथ। राम ने मना कर दिया। कहा, "यह पिता की आज्ञा के विरुद्ध होगा। उन्होंने मुझे वनवास दिया है। मैं वन में ही रहूँगा।" राम किष्किंधा से लौट आए। वर्षा ऋतु के कारण आगे जाना कठिन था। लंकारोहण कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया। इस अवधि में वे प्रश्रवण पहाड़ पर रहे। वर्षा ऋतु बीत गई। राम प्रतीक्षा कर रहे थे। सुग्रीव की वानरसेना की। सीता की खोज के लिए। सुग्रीव ने राजतिलक के दिन राम को इसका आश्वासन दिया था। लेकिन वह अपना वचन भूल गए।

राग-रंग में उलझ गए। राम चिंतित थे। दु:खी भी। हनुमान को सुग्रीव का वचन याद था। राजतिलक के दिन वे वहीं थे। उन्होंने सुग्रीव को याद दिलाया। सुग्रीव ने वानरसेना एकत्र करने का आदेश दिया। यह काम सेनापति नल को सौंपा गया। पंद्रह दिन और बीत गए। लेकिन सेना राम के पास नहीं पहुंची। राम सुग्रीव के इस व्यवहार से क्षुब्ध थे। क्रोध में उन्होंने सुग्रीव के विनाश तक की बात कही। राम को चिंतित देख लक्ष्मण से न रहा गया। उन्होंने धनुष उठाया तो राम ने उन्हें रोक दिया। कहा, “सुग्रीव को बस समझाना है। वह हमारा मित्र है।" लक्ष्मण किष्किंधा चले गए। सुग्रीव को समझाने। वहाँ पहुँचकर उन्होंने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई। डोरी खींचकर छोड़ी। उसकी टंकार से सुग्रीव काँप गया। धनुष की टंकार सुनते ही उसे राम को दिया वचन पुनः याद आ गया। तारा ने सलाह दी कि वे तत्काल जाकर राम से मिलें। क्षमा याचना करें। सुग्रीव ने ऐसा ही किया। राम के पास जाने से पूर्व सुग्रीव ने हनुमान को आवश्यक निर्देश दिए। वानर सेना एकत्र करने का आदेश। इस बार सुग्रीव सेना एकत्र होने तक नहीं रुके। तुरंत निकल पड़े। लक्ष्मण के पीछे-पीछे। राम के सामने जाकर भयभीत वानरराज ने उनसे क्षमा माँगी। अपनी चूक के लिए। राम ने उन्हें उठाकर गले लगा लिया। राम और सुग्रीव बात कर ही रहे थे कि उछलकूद करती वानर टोलियाँ वहाँ आ पहुँचीं। हनुमान के साथ लाखों वानर थे। जामवंत के पीछे भालुओं की सेना। इसके बाद लंकारोहण की योजना बनी। वानरों को चार टोलियों में बाँटा गया। अंगद को दक्षिण जाने वाले अग्रिम दल का नेता बनाया गया। उस दल में हनुमान, नल और नील भी थे। राम की यही इच्छा थी। उन्होंने कहा, "वानरों की सेना भेजने से पहले चतुर और बुद्धिमान दूतों को लंका भेजा जाए। यही उचित है। 


"राम और सुग्रीव की जय-जयकार करते वानर अपनी निर्धारित दिशाओं की ओर चल पड़े। दक्षिण जाने वाले दल को राम ने रोक लिया। उन्होंने हनुमान को अपने पास बुलाया। अपनी उँगली से अंगूठी उतारकर उन्हें दे दी। अंगूठी पर राम का चिह्न था। उन्होंने कहा, "जब सीता से भेंट हो तो यह अंगूठी उन्हें दे देना। वे इसे पहचान जाएँगी। समझ जाएँगी तुम्हें मैंने भेजा है। तुम मेरे दूत हो।"

दक्षिण की टोली किष्किधा से चली। अंगद और हनुमान आगे-आगे चल रहे थे। चलते-चलते वे ऐसे स्थान पर पहुँच गए, जिसके आगे भूमि नहीं थी। केवल जल था। विशाल समुद्र। उसकी गहराई अथाह थी। लहरों की गरज कँपा देती थी। समुद्र को देखकर सबका साहस जवाब दे गया। वानर थक-हारकर वहीं बैठ गए। वानर राम के बारे में चर्चा करने लगे। अंगद ने कहा, "राम की सेवा में प्राण भी चले जाएँ तो दुख नहीं होगा। जटायु ने अपनी जान दे दी। हम भी पीछे नहीं हटेंगे।" 

तभी एक विशाल गिद्ध पहाड़ी के पीछे से निकला। वह जटायु का भाई था। संपाति। उसने कहा, "सीता लंका में हैं। मैं जानता हूँ। रावण उन्हें लेकर गया है। आप लोगों को यह समुद्र पार करना होगा। सीता तक पहुँचने का बस यही एक रास्ता है।" सीता की सूचना मिलने से प्रसन्न हुआ वानर दल फिर निराश हो गया। समुद्र सामने था। विकराल था। उसे कौन पार करेगा? कैसे करेगा? अंगद उदास हो गए। लक्ष्य सामने था। पर विकट था। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था। बूढ़ा संपाति उनकी सहायता कर सकता था। पर इस आयु इतनी लंबी उड़ान संभव नहीं थी। वानर दल असमंजस में पड़ गया। अंगद ने पहले ही कह दिया था कि काम पूरा किए बिना कोई किष्किधा वापस नहीं जाएगा। वे न आगे जा सकते थे, न पीछे। वे एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। इस दल में सबसे बुद्धिमान जामवंत थे। सब उनके पास गए। उनके पास भी इस कठिन प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। 

तभी जामवंत की दृष्टि हनुमान पर पड़ी। वे सबसे दूर बैठे थे। चुपचाप। जामवंत जानते थे कि यह काम हनुमान कर सकते हैं। वे पवन-पुत्र हैं। उनकी शक्ति अपार है। लेकिन उन्हें स्वयं इसका अनुमान नहीं है। उनकी सोई हुई शक्ति जामवंत ने जगाई। कहा, "हनुमान! आपको जाना होगा। यह कार्य केवल आप कर सकते हैं।" सबकी आँखें उन्हीं पर टिक गईं।

बुधवार, 12 मई 2021

सीता की खोज | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | SITA KI KHOJ | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

सीता की खोज 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

राम के मन में कई प्रकार के प्रश्न थे। आशंकाएँ थीं। मारीच की माया उन्होंने देख ली थी। वह छल से उन्हें कुटिया से दूर ले आया था। “अब क्या होगा?" यही सोचते हुए वे कुटिया की ओर भागे चले जा रहे थे। वापसी में एक पल भी विलंब नहीं करना चाहते थे। लक्ष्मण को वे कुटी पर छोड़ आए थे। सीता की रखवाली के लिए। “अच्छा हो कि लक्ष्मण वहीं हों। मारीच की मायावी आवाज़ उन तक न पहुँची हो, ”राम ने सोचा। “सीता अकेली रहीं तो राक्षस उन्हें मार डालेंगे। खा जाएँगे।"

तभी उन्होंने पगडंडी से लक्ष्मण को आते देखा। वही हुआ, जिसका राम को डर था। अनिष्ट की आशंका और बढ़ गई। पता नहीं सीता किस हाल में होंगी? राक्षसों ने उन्हें मार डाला होगा? उठा ले गए होंगे? अकेली सीता दुष्ट राक्षसों के सामने क्या कर पाई होंगी? कुटी छोड़कर आने पर वह लक्ष्मण से क्रुद्ध थे। उन्होंने क्रोध पर नियंत्रण रखा। लक्ष्मण का बायाँ हाथ ज़ोर से पकड़ लिया। डर ने दोनों भाइयों को घेर लिया था।

"देवी सीता ने मुझे विवश कर दिया, भ्राते! उनके कटु वचन मैं सहन नहीं कर सका। कटाक्ष और उलाहना नहीं सुन सका। जानता था कि आप सकुशल होंगे। आपकी सुरक्षा को लेकर मन में कोई संदेह नहीं था। तब भी मुझे कुटिया छोड़कर आना पड़ा, "लक्ष्मण ने कहा।"


यह तुमने अच्छा नहीं किया। तुम्हें मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए था। अब जल्दी चलो। मेरा मन चिंतित है। सीता न जाने किस हाल में होंगी। कैसी होंगी। मायावी राक्षसों का कोई ठिकाना नहीं। "राम ने चलने की गति और बढ़ा दी।

कुटिया अभी कुछ दूर थी। पर दिखाई पड़ने लगी थी। राम ने वहीं से पुकारा, 'सीते! तुम कहाँ हो?" जैसे कि उन्हें पता चल गया हो कि सीता आश्रम में नहीं हैं। कुटिया मौन रही। वहाँ से कोई उत्तर नहीं मिला। राम की बेचैनी बढ़ गई। उनकी एक आवाज़ पर कहीं से भी उपस्थित हो जाने वाली सीता वहाँ नहीं थीं। अनुपस्थिति बोलती कैसे?

राम की आवाज़ पेड़ों से टकराकर हवा में विलीन हो गई। कुटिया के शून्य में समा गई। राम पुकारते रहे। उत्तर में उन्हें हर बार सन्नाटा ही मिला। चुप्पी हर ओर थी। हर दिन हवा में झूलने वाले पत्ते शांत थे। लताएँ गुमसुम पड़ी हुई थीं। चिड़ियों की चहक लुप्त थी। कुटिया के निकट घूमने वाले पशु-पक्षी चुप खड़े थे। सब स्तब्ध! राम भागते हुए आश्रम पहुँचे। कुटिया में जाकर देखा। “सीते! सीते!" पुकारते हुए उन्होंने आसपास की हर जगह देखी। पेड़ों-झाड़ियों के पीछे गए। उन स्थानों की ओर भागे, जहाँ सीता जा सकती थीं। सीता का कहीं पता न था। शोक से व्याकुल राम रोने लगे। सीता से बिछुड़ना उनके लिए असहनीय आघात था। वे सुध-बुध भुला बैठे।


विरह में वे गोदावरी नदी के पास गए। उससे पूछा, “तुमने सीता को कहीं देखा है?" नदी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे पंचवटी के एक-एक वृक्ष के पास गए। सबसे पूछा। कोई सीता का पता बता दे। हाथी के पास गए। शेर से पूछा। फूलों के पास रुके। चट्टानों, पत्थरों से प्रश्न किया। शोक संतप्त राम भूल गए कि चट्टानें नहीं बोलतीं। पेड़-पौधे बात नहीं करते। उनकी भाषा मौन है। उनके उत्तर भी मौन ही हैं।

राम की मानसिक स्थिति विक्षिप्त जैसी थी। एक बार उन्हें लगा कि सीता वहीं हैं। कुटिया के पास। अभी भागकर पेड़ के पीछे छिप गई हैं। उन्हें खिझाने के लिए। "मेरे साथ परिहास मत करो, सीते!" राम उस पेड़ की ओर दौड़ पड़े। वहाँ कोई नहीं था। वे निराश होकर पेड़ के नीचे बैठ गए।

राम का दुख लक्ष्मण से देखा नहीं जा रहा था। उनका व्यवहार सहन नहीं हो रहा था। वे राम के निकट गए। विलाप करते राम ने कहा, "मैं सीता के बिना नहीं रह सकता। तुम अयोध्या लौट जाओ, लक्ष्मण। मैं वहाँ नहीं जाऊँगा। यहीं प्राण दे दूंगा। मैं सीता के साथ आया था। उसके बिना कैसे लौटूंगा? नगरवासियों को क्या मुंह दिखाऊ। तुम जाओ। मुझे यहीं छोड़ दो।"

आप आदर्श पुरुष हैं। आपको धैर्य रखना चाहिए। इस तरह दु:ख से कातर नहीं होना चाहिए। हम मिलकर सीता की खोज करेंगे। वे जहाँ भी होंगी, हम उन्हें ढूँढ निकालेंगे। सीता हमारी प्रतीक्षा कर रही होंगी।" लक्ष्मण ने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा।

राम शांत हुए। पर थोड़ी ही देर में "हा प्रिये!" कहते हुए पुनः विलाप करने लगे। इसी बीच आश्रम के आसपास भटकने वाला हिरणों का एक झुंड राम-लक्ष्मण के निकट आ गया। राम को लगा कि हिरण सीता के बारे में जानते हैं। उन्हें कुछ बताना चाहते हैं। "हे मृग! तुम्हीं बताओ सीता कहाँ हैं? "राम ने पूछा। हिरणों ने सिर उठाकर आसमान की ओर देखा और दक्षिण दिशा की ओर भाग गए। राम ने संकेत समझ लिया "हमें सीता की खोज दक्षिण दिशा में ही करनी चाहिए. "उन्होंने लक्ष्मण से उसी ओर गए हैं। "वन में भटकते हुए उन्होंने एक टूटे रथ के टुकड़े देखे। मरा हुआ सारथी और मृत घोड़े भी थे। “वन में रथ का क्या प्रयोजन? उसके टूटने का क्या अर्थ? "राम असमंजस में पड़ गए। "लगता है थोड़ी देर पहले यहाँ संघर्ष हुआ है, "लक्ष्मण ने कहा। "यह पुष्पमाला वही है, जिसे सीता ने वेणी में गूंथ रखा था। निश्चित तौर पर सीता राक्षसों के चंगुल में फँस गई हैं। यह माला संघर्ष के दौरान वेणी से टूटकर गिरी होगी।"

"पर यह रथ कैसे टूटा?" राम सोचने लगे। "सीता के संघर्ष से यह नहीं टूट सकता। अवश्य किसी ने राक्षसों को चुनौती दी होगी। उनसे युद्ध किया होगा। "वहाँ से थोड़ी ही दूर राम ने पक्षिराज जटायु को देखा। पंख कटे हुए। लहूलुहान। अंतिम साँसें गिनते हुए। “हे राजकुमार! सीता को रावण उठा ले गया है। मेरे पंख उसी ने काटे। सीता का विलाप सुनकर मैंने रावण को चुनौती दी। उसका रथ तोड़ दिया। सारथी और घोड़ों को मार डाला। स्वयं रावण को घायल कर दिया। पर मैं सीता को नहीं बचा सका। रावण उन्हें लेकर दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर उड़ गया, "कहते-कहते जटायु ने प्राण त्याग दिए। राम ने आगे बढ़ने से पहले जटायु की अंतिम क्रिया की। वे सोचते रहे। पछताते रहे। “यह कैसा विधान है! मैं तो कष्ट में हूँ ही। मेरी सहायता करने वालों को भी इतना कष्ट!" राम की आँखें नम हो आई। उन्होंने जटायु को अंतिम बार प्रणाम किया।

जटायु ने सीता के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचना दी थी। रावण का नाम बताया। दिशा बताई, जिधर सीता को लेकर वह गया। राम जटायु की चिता के पास मौन खड़े थे। “ यह समय विलाप करने का नहीं है। हमें तुरंत दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर जाना चाहिए। सीता उधर ही होंगी, "लक्ष्मण ने तत्परता दिखाई। आगे का मार्ग और कठिन था। राम और लक्ष्मण को लगभग हर दिन राक्षसी आक्रमणों से जूझना पड़ा। अनेक कठिनाइयाँ आईं। अवरोध मिले। दोनों राजकुमार प्रत्येक बाधा पार करते चले गए। उनके सामने लक्ष्य स्पष्ट था। दिशा तय थी। उन्हें कोई नहीं रोक सकता था। वन-मार्ग जितना कठिन होता गया, उनकी दृढ़ता बढ़ती गई। वनवासी राजकुमार प्रतिदिन सुबह उठते और दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ते। एक दिन यात्रा के प्रारंभ में ही एक विशालकाय राक्षस ने उन पर आक्रमण कर दिया। उसका नाम कबंध था। कबंध देखने में बहुत डरावना था। मोटे माँसपिंड जैसा। गर्दन नहीं थी। एक आँख थी। दाँत बाहर निकले हुए। जीभ साँप की तरह। लंबी और लपलपाती हुई।

राम-लक्ष्मण को देखते ही कबंध प्रसन्न हो गया। उसने दोनों हाथ फैलाए। एक-एक हाथ से दोनों भाइयों को पकड़कर हवा में उठा दिया। उसे मनमाँगा आहार मिल गया था। बैठे- बिठाए। वह अपने शिकार को भुजाओं में लपेटकर मुँह तक ले जाता इससे पहले ही राम-लक्ष्मण ने अपनी तलवारें निकाल लीं। एक झटके में कबंध के हाथ काट दिए। उसके हाथ धरती पर गिर पड़े। कबंध उनकी शक्ति और बुद्धि पर आश्चर्यचकित रह गया। “कौन हो तुम दोनों? "उसने पूछा। हम अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र हैं। राम और लक्ष्मण। रावण ने राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया है। हम उन्हीं की खोज में निकले हैं। राक्षस कबंध ने राम के बारे में सुन रखा था। साक्षात् उन्हें देखकर प्रसन्न हो गया। उसने कहा, " मैं सीता के संबंध में कुछ नहीं जानता। लेकिन तुम दोनों की सहायता का उपाय बता सकता हूँ। मेरा एक छोटा-सा आग्रह स्वीकार करो तो। मेरा अंतिम संस्कार राम करें।" राम ने इस पर सहमति व्यक्त की तो कबंध बोला, "आप दोनों पंपा सरोवर के निकट ऋष्यमूक पर्वत पर जाएँ। वह वानरराज सुग्रीव का क्षेत्र है। वे निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। सुग्रीव से मदद का आग्रह कीजिए। उनके पास बहुत बड़ी वानर सेना है। सुग्रीव के वानर सीता को अवश्य खोज निकालेंगे।"


कबंध की साँस टूटने लगी थी। उसका अंत निकट था। राम और लक्ष्मण को अपने निकट बुलाते हुए उसने कहा, “पंपा सरोवर के पास मतंग ऋषि का आश्रम है। वहीं उनकी शिष्या शबरी रहती है। आगे जाने से पूर्व शबरी से अवश्य मिल लें।" यही बोलते-बोलते कबंध ने प्राण त्याग दिए। राम ने अपना वचन पूरा करते हुए उसका अंतिम संस्कार किया और पंपासर की ओर चल पड़े।

कबंध की बातों से राम को बहुत ढाढ़स हुआ। सीता तक पहुँचने की आशा बलवती हुई। राम को सुग्रीव की क्षमता और उनकी वानर सेना की शक्ति का पता था। वे जल्दी सुग्रीव तक पहुँचना चाहते थे।

ऋष्यमूक पर्वत का रास्ता पंपा सरोवर होकर जाता था। पंपासर का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत था। मतंग ऋषि का आश्रम उसी सरोवर के किनारे था। लता - कुंज से घिरा हुआ । सरोवर का पानी मीठा था। शबरी की कुटिया आश्रम में ही थी। वह ऋषि की शिष्या थी। उसकी आयु बहुत हो गई थी। जर्जर काया। लेकिन आँखें ठीक थीं। हर पल राम की प्रतीक्षा में खुली हुईं। ऋषि ने उसे बताया था कि एक दिन राम आश्रम में अवश्य आएँगे। और उससे मिलेंगे।


राम को आश्रम में देखकर शबरी बहुत प्रसन्न हुई। उनकी आवभगत की। सेवा की। खाने को मीठे फल दिए। रहने की जगह दी। उसकी आँखें तृप्त हो गईं। राम ने उससे सीता के संबंध में पूछा। “आप सुग्रीव से मित्रता करिए । सीता की खोज में वह अवश्य सहायक होगा। उसके पास विलक्षण शक्ति वाले बंदर हैं," शबरी ने राम को आश्वस्त किया।

अगले दिन राम ऋष्यमूक पर्वत चले गए। उनकी व्याकुलता अब और घट गई थी। मन की शांति लौट आई थी।

मंगलवार, 11 मई 2021

सोने का हिरण | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | SONE KA HIRAN | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

सोने का हिरण 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 


राम को कुटी से निकलते देखकर मायावी हिरण कुलाचें भरने लगा। राम को बहुत छकाया। झाड़ियों में लुकता-छिपता-भागता वह राम को कुटी से बहुत दूर ले गया। राम जब भी उसे पकड़ने का प्रयास करते, वह भागकर और दूर चला जाता। हिरण चालाक था। वह इतनी दूर कभी नहीं जाता था कि पहुँच से बाहर लगे। राम के सारे प्रयास विफल हुए। वे हिरण को पकड़ नहीं पाए। उन्होंने उसे जीवित पकड़ने का विचार त्याग दिया। धनुष उठाया। निशाना साधा। और एक बाण उस पर छोड़ दिया। बाण लगते ही हिरण गिर पड़ा। धरती पर गिरते ही मारीच अपने असली रूप में आ गया । मारीच ने माया से केवल अपना रूप नहीं बदला था। आवाज़ भी बदल ली थी। अपनी आवाज़ राम जैसी बना ली थी। धरती पर पड़े हुए वह ज़ोर से चिल्लाया, "हा सीते! हा लक्ष्मण!" ध्वनि ऐसी थी जैसे बाण राम को लगा हो। वह सहायता के लिए पुकार रहे हों। बाण का प्रहार गहरा थ। मारीच उसे अधिक देर तक सहन नहीं कर पाया। वह छटपटाता रहा। जल्दी ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। रावण एक विशाल वृक्ष के पीछे खड़ा था। वह प्रसन्न था। उसकी चाल सफल हो गई थी। मारीच ने अपनी भूमिका अच्छी तरह निभाई थी। अब तक सब कुछ वैसा ही हुआ, जैसा उसने सोचा था। उसे राक्षस अकंपन की बात याद आई। सीता का हरण हो तो राम के प्राण निकल जाएँगे। वह निशक्त हो जाएँगे। वह अगले चरण की तैयारी में मारीच की पुकार राम ने सुनी। वह पास ही थे। उन्हें समझने में देर नहीं लगी कि पुकार की मंशा क्या है! मायावी मारीच की पूरी चाल उनके सामने खुल गई। हिरण जानबूझकर भागता रहा। उन्हें कुटिया से दूर ले जाने के लिए। वह षड्यंत्र का अगला चरण विफल करना चाहते थे। उनकी चाल में तेजी आ गई ताकि जल्दी कुटिया पहुँच सकें। जुट गया।

वह मायावी पुकार सीता और लक्ष्मण ने भी सुनी। लक्ष्मण उसका रहस्य तत्काल समझ गए। राम की तरह। उन्होंने बाण चढ़ाकर धनुष दृढ़ता से पकड़ लिया। चौकसी बढ़ा दी। वे राक्षसों की अगली चाल का सामना करने के लिए तैयार थे। साथ ही राम का आदेश उन्हें याद था। उनके लौटने तक सीता की रक्षा। लक्ष्मण की ओर से इसमें चूक की कोई संभावना ही नहीं थी। सीता वह आवाज़ सुनकर विचलित हो गईं। घबरा गईं। दौड़कर कुटिया के द्वार पर आईं। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "तुम जल्दी जाओ। जिस दिशा से आवाज़ आई है, उसी ओर। तुम्हारे भाई किसी कठिन संकट में फँस गए हैं। उन्होंने सहायता के लिए पुकारा है। उनकी ऐसी कातर आवाज़ मैंने कभी नहीं सुनी। जाओ लक्ष्मण। जल्दी।" “आप चिंता न करें, माते!" लक्ष्मण ने सीता को आश्वस्त करते हुए कहा। "राम संकट में नहीं हैं। हो ही नहीं सकते। उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। हमने जो आवाज़ सुनी, वह बनावटी है। मायावी राक्षसों की चाल है। मुझे कुटिया से दूर ले जाने के लिए। आप निश्चित रहें। भाई राम जल्दी ही आते होंगे।"

सीता क्रोध से उबल पड़ीं। लक्ष्मण का इस घड़ी में इतना शांत होना उन्हें समझ में नहीं आया। राम की आवाज़ सुनकर भी वे यहीं खड़े रहे। सहायता के लिए नहीं गए। सीता को इसके पीछे षड्यंत्र दिखाई दिया। लक्ष्मण की चाल। लगा कि लक्ष्मण राम का भला नहीं चाहते। उनके हितैषी नहीं हैं। चाहते हैं कि राम न रहें। मारे जाएँ। ताकि राजपाट उन दोनों का हो जाए। उनके रास्ते का काँटा निकल जाए।' तुम्हारा मन पवित्र नहीं है। कलुषित है। पाप है उसमें। मैं समझ सकती हूँ कि तुम अपने भाई की सहायता के लिए क्यों नहीं जा रहे हो! "सीता ने यहाँ तक कह दिया कि कहीं वे भरत के गुप्तचर तो नहीं हैं! सीता की बातों से लक्ष्मण को गहरा आघात पहुँचा। उनका हृदय छलनी हो गया। पर उन्होंने पलटकर उत्तर नहीं दिया। संयम बनाए रखा। सिर झुकाकर सब चुपचाप सुन लिया। वे सीता की पीड़ा समझ पा रहे थे। केवल इतना बोले, "हे देवी! यह राक्षसों का छल है। खर-दूषण के मारे जाने के बाद वे बौखला गए हैं। किसी तरह हमसे बदला लेना चाहते हैं। आप उनकी चाल में न आएँ। वे कुछ भी कर सकते हैं। मुझ पर विश्वास करें। राम को कुछ नहीं होगा।"

सीता का क्रोध और बढ़ गया। क्रोध में आँखों से आँसू बहने लगे। यह भी लग रहा था कि कहीं लक्ष्मण की बात सही न हो। यह डर था कि राम से बिछोह न हो। उन्होंने कहा, "राम से बिछुड़कर मैं नहीं रह सकती। मैं जान दे दूंगी। हे लक्ष्मण! तुम उन्हें लेकर आओ। "लक्ष्मण राम के लिए राम की आज्ञा का उल्लंघन कर रहे थे। उन्होंने सीता को प्रणाम किया और राम की खोज में निकल पड़े। लक्ष्मण के जाते ही रावण आ पहुँचा। तपस्वियों जैसा जटा-जूट। वैसे ही वस्त्र। सीता ने साधु समझकर उसका स्वागत किया। रावण ने सीता के स्वरूप, संस्कार और साहस की प्रशंसा की। उसने सीता का परिचय प्राप्त करने के बाद कहा, "सुमुखी! मैं रावण हूँ। राक्षसों का राजा। लंकाधिपति। मेरा नाम लेने पर लोग थरथरा उठते हैं। लेकिन तुम सुंदरी हो। सबसे अलग हो। तुम्हारे लिए मैं स्वयं चलकर आया हूँ। मेरे साथ चलो। सोने की लंका में रहो। मेरी रानी बनकर। "सीता क्रोधित हो उठीं। कहा, "मैं प्राण त्याग दूंगी लेकिन तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगी। मैं राम की पत्नी हूँ। वे महाबलशाली हैं। तुम्हें उनकी शक्ति का अनुमान नहीं है।


तुम चले जाओ नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा। "रावण ने सीता की बात अनसुनी कर दी। खींचकर उन्हें रथ में बैठा लिया। सीता प्रयास करती रहीं। पर रावण के चंगुल से मुक्त नहीं हो सकी। स्वयं को असहाय पाकर वे विलाप करने लगीं। "हा राम! हा लक्ष्मण! "पुकारती रहीं। रावण का रथ लंका की ओर उड़ चला। मार्ग में वे पशुओं, पक्षियों, पर्वतों, नदियों से कहती जा रही थीं कि कोई उनके राम को बता दे। रावण ने उनका हरण कर लिया है। गिद्धराज जटायु ने सीता का विलाप सुना। उसने ऊँची उडान भरी। रावण के रथ पर हमला कर दिया। वृद्ध गिद्धराज ने रथ क्षत-विक्षत कर दिया। रावण को घायल कर डाला। क्रोध में रावण ने जटायु के पंख काट दिए। जटायु अब उड़ नहीं सकता था। वह सीधे धरती पर आ गिरा। रावण का रथ टूट गया था। उड़ान नहीं भर सकता था। उसने तत्काल सीता को अपनी बाँहों में दबाया और दक्षिण दिशा की ओर उड़ने लगा। सीता को लगा कि अब संभवतः कोई उनकी सहायता नहीं कर पाएगा। उनका बचाव केवल एक ही था। राम को किसी तरह समाचार मिल जाए। उन्होंने अपने आभूषण उतारकर फेंकना प्रारंभ कर दिया। आभूषण वानरों ने उठा लिए। उन्हें आशा थी कि वानरों के पास ये आभूषण देखकर राम समझ जाएंगे। उन्हें पता चल जाएगा कि सीता किस मार्ग से गई हैं। रावण ने सीता को आभूषण फेंकने से नहीं रोका। उसे लगा कि सीता शोक में ऐसा कर रही हैं। कुछ ही समय में रावण लंका पहुँच गया। वह अपने धन-वैभव से सीता को प्रभावित करना चाहता था। उन्हें लेकर वह सीधा अपने अंत: पुर में गया। राक्षसियों को सीता की निगरानी करते रहने को कहा। और बाहर निकल गया। थोड़ी देर में वह फिर लौटा। सीता को घूरते हुए उसने कहा, "सुंदरी! मैं तुम्हें एक वर्ष का समय देता हूँ। निर्णय तुम्हें करना है। मेरी रानी बनकर लंका में राज करोगी या विलाप करते हुए जीवन बिताओगी। "सीता बार-बार रावण को धिक्कारती रहीं। राम का गुणगान करती रहीं। रावण को क्रोध आ गया, "तुम्हारा राम यहाँ कभी नहीं पहुँच सकता। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। तुम्हारी रक्षा केवल मैं कर सकता हूँ। मुझे स्वीकार करो और लंका में सुख से रहो।"


"पापी रावण! राम तुझे अपनी दृष्टि से जलाकर राख कर सकते हैं। उनकी शक्ति देवता भी स्वीकार करते हैं। मैं उस राम की पत्नी हूँ, जिसके तेज और पराक्रम के आगे कोई नहीं ठहर सकता। तेरा सारा वैभव मेरे लिए अर्थहीन है। तूने पाप किया है। राम के हाथों तेरा अंत निश्चित है। "राम की इतनी प्रशंसा सुनकर रावण कुछ चिंतित हो गया। उसने सोचा, खर-दूषण को मारने वाला अवश्य शक्तिशाली होगा। उसने तत्काल अपने आठ सबसे बलिष्ठ राक्षसों को बुलाया कहा, “तुम लोग पंचवटी जाओ। राम और लक्ष्मण वहीं रहते हैं। उनका एक-एक समाचार मुझे मिलना चाहिए। दोनों पर निगरानी रखो। मौका मिलते ही उन्हें मार डालो। "उधर, सीता को पाने के लिए रावण ने अपनी योजना बदली। उन्हें अंत:पुर से निकालकर अशोक वाटिका में बंदी बना दिया गया। पहरा कड़ा कर दिया गया। राक्षसों-राक्षसियों को स्पष्ट निर्देश थे, "सीता को किसी तरह का शारीरिक कष्ट न हो। इसके मन को दु:ख पहुँचाओ। अपमानित करो। लेकिन सीता को कोई हाथ न लगाए।"
रावण ने सब कुछ किया पर सीता का मन नहीं बदला। वे बार-बार राम का नाम लेती थीं। शेरों के बीच हिरणी की तरह बैठी रहती थीं। डरी-सहमी। रो-रोकर दिन काट रही थीं। सोने के हिरण ने उन्हें सोने की लंका में पहुँचा दिया था। यहाँ से उन्हें राम ही बचा सकते थे।

दंडक वन में दस वर्ष | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | VALMIKI RAMAYAN | BAL RAMKADHA | DANDAK VAN MAI DAS VARSH

दंडक वन में दस वर्ष 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

भरत अयोध्या लौट चुके थे। नगरवासी भी। सेना धूल उड़ाती हुई वापस जा चुकी थी। कोलाहल थम गया था। दो दिन बाद चित्रकूट की परिचित शांति लौट आई थी। पक्षियों की चहचहाहट फिर सुनाई पड़ने लगी थी। हिरण कुलाचे भरते हुए बाहर निकल आए थे। राम पर्णकुटी के बाहर एक शिलाखंड पर बैठे थे। एकदम अकेले। विचारमग्न। कुछ सोचते हुए। चित्रकूट अयोध्या से केवल चार दिन की दूरी पर था। लोगों का आना-जाना लगा रहता। वे प्रश्न पूछते। राय माँगते। यह राजकाज में हस्तक्षेप की तरह होता। चित्रकूट सुंदर - सुरम्य था। शांत था। पर राम वहाँ से दूर चले जाना चाहते थे। उन्होंने मन बना लिया। चित्रकूट में न ठहरने का। इसका एक कारण और था। वहाँ रहकर तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों का निर्णय। राम-लक्ष्मण ने उस वन से राक्षसों का सफ़ाया कर दिया था। अब तपस्या में कोई बाधा नहीं थी। लेकिन मुनिगण वन छोड़ना चाहते थे। कुछ राक्षस मायावी थे। जब-तब आ धमकते थे। यज्ञ में बाधा डालते थे। तीनों वनवासी मुनि अत्रि से विदा लेकर चल पड़े। दंडक वन की ओर। चित्रकूट छोड़ दिया। दंडकारण्य घना था। पशु-पक्षियों और वनस्पतियों से परिपूर्ण। इस वन में अनेक तपस्वियों के आश्रम थे। लेकिन राक्षस भी कम नहीं थे। वे ऋषि-मुनियों को कष्ट देते थे। अनुष्ठानों में विघ्न डालकर। राम को देखकर मुनिगण बहुत प्रसन्न हुए। मुनियों ने राम का स्वागत करते हुए कहा, “आप उन दुष्ट मायावी राक्षसों से हमारी रक्षा करें। आश्रमों को अपवित्र होने से बचाएँ। "सीता दैत्यों के संहार के संबंध में दूसरी तरह सोच रही थीं। वे चाहती थीं कि राम अकारण राक्षसों का वध न करें। उन्हें न मारें, जिन्होंने उनका कोई अहित नहीं किया है। राम ने उन्हें समझाया, “सीते! राक्षसों का विनाश ही उचित है। वे मायावी हैं। मुनियों को कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिए मैंने ऋषियों की रक्षा की प्रतिज्ञा की है।"


राम, लक्ष्मण और सीता दंडकारण्य में दस वर्ष रहे। स्थान और आश्रम बदलते हुए। वे क्षरभंग मुनि के आश्रम पहुंचे। आश्रम में बहुत कम तपस्वी बचे थे। सभी निराश थे। उन्होंने राम को हड्डियों का ढेर दिखाकर कहा, "राजकुमार! ये ऋषियों के कंकाल हैं, जिन्हें राक्षसों ने मार डाला है। अब यहाँ रहना असंभव है। "सुतीक्ष्ण मुनि ने भी राम को राक्षसों के अत्याचार की कहानी सुनाई। मुनि ने ही राम को अगस्त्य ऋषि से भेंट करने की सलाह दी। विंध्याचल पार करने वाले वह पहले ऋषि थे। मुनि ने राम को गोदावरी नदी के तट पर जाने को कहा। उस स्थान का नाम पंचवटी था। वनवास का शेष समय दोनों राजकुमारों और सीता ने वहीं बिताया। पंचवटी के मार्ग में राम को एक विशालकाय गिद्ध मिला। जटायु। सीता उसका स्वरूप देखकर डर गईं । लक्ष्मण ने उसे मायावी राक्षस समझा। वे धनुष उठा ही रहे थे कि जटायु ने कहा, “हे राजन! मुझसे डरो मत। मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ। वन में तुम्हारी सहायता करूँगा। आप दोनों बाहर जाएँगे तो सीता की रक्षा करूँगा। "राम ने जटायु को धन्यवाद दिया। उन्हें प्रणाम करके आगे बढ़ गए।


पंचवटी में लक्ष्मण ने बहुत सुंदर कुटिया बनाई। मिट्टी की दीवारें खड़ी की। बाँस के खंभे लगाए। कुश और पत्तों से छप्पर डाला। कुटिया ने उस मनोरम पंचवटी को और सुंदर बना दिया। कुटी के आसपास पुष्पलताएँ थीं। हिरण घूमते थे। मोर नाचते थे। इस बीच राम राक्षसों का निरंतर संहार करते रहे। वे जब भी आश्रमों पर आक्रमण करते, राम-लक्ष्मण उन्हें मार देते। उन्होंने सीता को पकड़ लेने वाले राक्षस विराध को मारा। वन से राक्षसों का अस्तित्व लगभग मिटा दिया। तपस्वी शांति से तप करने लगे। एक दिन राम, लक्ष्मण और सीता कुटी के बाहर बैठे हुए थे। लता-कुंजों को निहारते। उनके सौंदर्य पर मुग्ध होते। तभी लंका के राजा रावण की बहन शूर्पणखा वहाँ आई। राम को देखकर वह उन पर मोहित हो गई। उसने स्वयं को पानी में देखा। विकृत चेहरा। मुँह पर झुर्रियाँ। वह बूढ़ी थी पर राम के मोह में आसक्त। उन्हें पाना चाहती थी। उसने माया से सुंदर स्त्री का रूप बना लिया। शूर्पणखा राम के पास गई। उनसे बोली, "हे रूपराज! मैं तुम्हें नहीं जानती। पर तुमसे विवाह करना चाहती हूँ। तुम मेरी इच्छा पूरी करो। मुझे अपनी पत्नी स्वीकार करो। "राम ने मुसकराकर लक्ष्मण की ओर देखा। अपना परिचय दिया। सीता की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये मेरी पत्नी हैं। मेरा विवाह हो चुका है। "राम शूर्पणखा को पहचान गए थे। फिर भी उन्होंने उसका परिचय पूछा। शूर्पणखा ने झूठ नहीं बोला। सच-सच बताया कि वह रावण और कुंभकर्ण की बहन है और अविवाहित है। राम के मना करने के बाद वह लक्ष्मण के पास गई। लक्ष्मण ने कहा, आने से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, देवी! मैं तो राम का दास हूँ। मुझसे विवाह करके तुम दासी बन जाओगी। "लक्ष्मण ने शूर्पणखा को पुनः राम के पास भेज दिया। दोनों भाइयों के लिए यह खेल हो गया। शूर्पणखा उनके बीच भागती रही। क्रोध में आकर उसने सीता पर झपट्टा मारा। सोचा कि राम इसी के कारण विवाह नहीं कर रहे हैं। लक्ष्मण तत्काल उठ खड़े हुए। तलवार खींची और उसके नाक-कान काट लिए। खून से लथपथ शूर्पणखा वहाँ से रोती-बिलखती भागी। अपने भाई खर और दूषण के पास। वे उसके सौतेले भाई थे। उसी वन में रहते थे।


शूर्पणखा की दशा देखकर खर-दूषण के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने तत्काल चौदह राक्षस भेजे। शूर्पणखा उनके साथ गई। राम जानते थे कि राक्षस बदला लेने अवश्य आएँगे। वे तैयार थे। सीता को उन्होंने सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। लक्ष्मण के साथ। राक्षस राम के सामने नहीं टिक सके। देखते ही देखते उन्होंने सबको ढेर कर दिया। शूर्पणखा ने एक पेड़ के पीछे से यह दृश्य देखा। राम के पराक्रम से वह चकित थी। उसका मोह और बढ़ गया। साथ ही क्रोध भी बढ़ा। वह फुफकारती। इस बार खर-दूषण राक्षसों की पूरी सेना के साथ चले। खर ने देखा कि आसमान काला पड़ गया। घोड़े स्वयं धरती पर गिरकर मर गए। आकाश में गिद्ध मँडराने लगे। ये अमंगल के संकेत थे। पर वह रुका नहीं। आगे बढ़ता गया। घमासान युद्ध हुआ। अंत में विजय राम की हुई। खर-दूषण सहित उनकी सेना धराशायी हो गई। कुछ पिछलग्गू राक्षस बचे। वे जान बचाकर वहाँ से भाग निकले। भागने वालों में एक राक्षस का नाम अकंपन था। वह सीधे रावण के पास गया। लंकाधिपति को उसने पूरा विवरण बताया। अकंपन ने कहा , "राम कुशल योद्धा हैं। उनके पास विलक्षण शक्तियाँ हैं। उन्हें कोई नहीं मार सकता। इसका एक ही उपाय है। सीता का अपहरण। इससे उनके प्राण स्वयं ही निकल जाएँगे। "रावण सीता-हरण के लिए तैयार हो गया। वह महल से चला। रास्ते में उसकी भेंट मारीच से हुई। ताड़का के पुत्र से। ताड़का का वध राम ने पहले ही कर दिया था। मारीच क्रोधित था। पर राम की शक्ति से परिचित था। उसने रावण को सीता-हरण के लिए मना किया। समझाया। कहा, "ऐसा करना विनाश को आमंत्रण देना है। "रावण ने मारीच की बात मान ली। चुपचाप लंका लौट गया। थोड़ी ही देर में शूर्पणखा लंका पहुंची। विलाप करती हुई। चीखती-चिल्लाती। रावण को पूरी घटना की जानकारी थी लेकिन उसने शूर्पणखा को सुना। वह रावण को धिक्कार रही थी। फटकार रही थी। उसके पौरुष को ललकारते हुए शूर्पणखा ने कहा, "तेरे महाबली होने का क्या लाभ? तेरे रहते मेरी यह दुर्गति? तेरा बल किस दिन के लिए है? तू किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रह गया है। "शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण के बल की प्रशंसा की। सीता को अतीव सुंदरी बताया।


कहा कि उसे लंका के राजमहल में होना चाहिए। शूर्पणखा बोली, “मैं सीता को तुम्हारे लिए लाना चाहती थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं रावण की बहन हूँ। क्रोध में लक्ष्मण ने मेरे नाक-कान काट लिए। "रावण फिर मारीच के पास गया। खर-दूषण की मृत्यु से वह कुछ घबराया हुआ था। रावण ने मारीच से मदद माँगी। मारीच चाहता था कि रावण सीता-हरण का विचार छोड़ दे। इस बार रावण ने उसकी नहीं सुनी। उसे डाँटा और आज्ञा दी, "मेरी मदद करो। "मारीच जानता था कि दोबारा राम के सामने पड़ने पर वह मारा जाएगा। राम उसे नहीं छोड़ेंगे। रावण मारीच के मन की बात भाँप गया। उसने क्रोध में भरकर कहा, "वहाँ जाने पर हो सकता है राम तुम्हें मार दें। लेकिन न जाने पर मेरे हाथों तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।" विवश होकर मारीच को रावण का आदेश मानना पड़ा। रथ पर बैठकर रावण और मारीच पंचवटी पहुँचे। कुटी के निकट आकर मायावी मारीच ने सोने के हिरण का रूप धारण कर लिया। कुटी के आसपास घूमने लगा। रावण एक पेड़ के पीछे छिपा था। उसने तपस्वी का वेश धारण कर लिया था।


सीता उस हिरण पर मुग्ध हो गईं। उन्होंने राम से उसे पकड़ने को कहा। राम को हिरण पर संदेह था। वन में सोने का हिरण? लक्ष्मण बड़े भाई की बात से सहमत थे। पर सीता के आग्रह के आगे उनकी एक न चली। सीता की प्रसन्नता के लिए राम हिरण के पीछे चले गए। उन्होंने सोचा, "वन में इतने समय के प्रवास के दौरान सीता ने कभी कुछ नहीं माँगा। उनकी यह इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए। "कुटी से निकलते समय राम ने लक्ष्मण को बुलाया। सीता की रक्षा करने का आदेश दिया। कहा, "मेरे लौटने तक तुम उन्हें अकेला मत छोड़ना। "लक्ष्मण ने सिर झुकाकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। सीता कुटी में थीं। लक्ष्मण धनुष लेकर बाहर खडे हुए।

शनिवार, 8 मई 2021

चित्रकूट में भरत | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | CHITRAKUT MAI BHARAT | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

चित्रकूट में भरत 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

भरत केकय राज्य में थे। अपनी ननिहाल में। अयोध्या की घटनाओं से सर्वथा अनभिज्ञा लेकिन वे चिंतित थे। उन्होंने एक सपना देखा था। पर उसका अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पा रहे थे। संगी-साथियों के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, "मैं नहीं जानता कि उसका अर्थ क्या है? पर सपने से मुझे डर लगने लगा है। मैंने देखा कि समुद्र चंद्रमा धरती पर गिर पड़े। वृक्ष सूख गए। एक राक्षसी पिता को खींचकर ले जा रही है। वे रथ पर बैठे हैं। रथ गधे खींच रहे हैं।" जिस समय भरत मित्रों को अपना सपना सुना रहे थे, ठीक उसी समय अयोध्या से घुड़सवार दूत वहाँ पहुँचे। घुड़सवारों ने छोटा रास्ता चुना था। जल्दी पहुँचने के लिए। भरत को संदेश मिला। वे तत्काल अयोध्या जाने के लिए तैयार हो गए। ननिहाल में भरत का मन नहीं लग रहा था। उचट गया था। वे अयोध्या पहुँचने को उतावले थे। केकयराज ने भरत को विदा किया। सौ रथों और सेना के साथ। उन्हें घुड़सवारों से अधिक समय लगा। लंबा रास्ता पकड़ना पड़ा। सेना और रथ खेतों से होकर नहीं जा सकते थे। वे आठ दिन बाद अयोध्या पहुंचे। नदी-पर्वत लाँघते। थके हुए। और चिंतिता ने अयोध्या नगरी को दूर से देखा। नगर उन्हें सामान्य नहीं लगा। बदला-बदला सा था। अनिष्ट की आशंका उनके मन में और गहरी हो गई। "यह मेरी अयोध्या नहीं है? क्या हो गया है इसे? "उन्होंने पूछा। “सड़कें सूनी हैं। बाग-बगीचे उदास हैं। सब लोग कहाँ गए? वह तुमुलनाद कहाँ है? पक्षी भी कलरव नहीं कर रहे हैं। इतनी चुप्पी क्यों?" किसी ने भरत के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया।

नगर पहुँचते ही भरत सीधे राजभवन गए। महाराज दशरथ के प्रासाद की ओर। महाराज वहाँ नहीं थे। फिर वे कैकेयी के महल की ओर बढ़े। माँ ने आगे बढ़कर पुत्र को गले लगा लिया। परंतु भरत की आँखें पिता को ढूँढ रहीं थीं। उन्होंने माँ से पूछा। "पुत्र! तुम्हारे पिता चले गए हैं।

वहाँ, जहाँ एक दिन हम सबको जाना है। उनका निधन हो गया। "भरत यह सुनते ही शोक में खूब गए। पछाड़ खाकर गिर पड़े। पिलाप करने लगे। माँ कैकेयी ने उन्हें उठाया। ढाढ़स बंधाया। कहा, " उठो पुत्र! यशस्वी कुमार शोक नहीं करते। तुम्हारा इस प्रकार दु:खी होना उचित नहीं है। राजगुणों के विरुद्ध है। अपने को संभालो। "क्या से क्या हो गया! भरत यह मानकर चल रहे थे कि पिता राज्याभिषेक की तैयारियों में व्यस्त होंगे। सब कुछ उलटा हो गया। "उन्होंने मेरे लिए कोई संदेश दिया?" भरत ने माँ से पूछा। "नहीं, अंतिम समय में उनके मुँह से केवल तीन शब्द निकले। हे राम! हे सीते! हे लक्ष्मण! तुम्हारे लिए कुछ नहीं कहा।" भरत व्याकुल थे। विकलता बढ़ती ही जा रही थी। वह तुरंत राम के पास जाना चाहते थे। "महाराज ने उन्हें वनवास दे दिया है। चौदह वर्ष के लिए। सीता और लक्ष्मण भी राम के साथ गए हैं। "कैकेयी ने भरत का मन पढ़ते हुए कहा। वह जानती थीं कि भरत यहाँ से सीधे राम के पास ही जाएंगे। "परंतु वनवास क्यों? भ्राता राम से कोई अपराध हुआ? "

"राम ने कोई अपराध नहीं किया। महाराज ने उन्हें दंड भी नहीं दिया। इसके लिए मैंने महाराजा दशरथ से प्रार्थना की थी। मुझे तुम्हारे हित में यही उचित लगा। मैं तुम्हारा अहित नहीं देख सकती थी, "कैकेयी ने कहा। वरदान की पूरी कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा, "उठो पुत्र! राजगद्दी संभालो। अयोध्या का निष्कंटक राज्य अब तुम्हारा है।"

भरत अपना क्रोध रोक नहीं सके। चीख पडे, तुमने क्या किया, माते! ऐसा अनर्थ! घोर अपराध! अपराधिनी हो तुम। वन तुम्हें जाना चाहिए था, राम को नहीं। मेरे लिए यह राज अर्थहीन है। पिता को खोकर। भाई से बिछड़कर। नहीं चाहिए मुझे ऐसा राज्य। "इस बीच मंत्रीगण और सभासद भी वहाँ आ गए। भरत बोलते रहे, "तुमने पाप किया है, माते! इतना साहस कहाँ से आया तुममें? किसने तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट की? उलटा पाठ किसने पढ़ाया? यह अपराध अक्षम्य है। मैं राजपद नहीं ग्रहण करूँगा। तुमने ऐसा सोचा कैसे? "सभासदों की ओर मुड़ते हुए भरत ने हाथ जोड़कर' आप भी सुन लें। मेरी माँ ने जो किया है, उसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं राम की सौगंध खाकर कहता हूँ। मैं राम के पास जाऊँगा। उन्हें मनाकर लाऊंगा। प्रार्थना करूंगा कि वे गद्दी संभालें। मैं दास बनकर रहूंगा।" भरत बहुत उत्तेजित हो गए थे। स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सके। बोलते-बोलते उनकी साँस उखड़ने लगी। वे चकराकर धरती पर गिर पड़े।

सुध-बुध लौटी तो भरत रानी कौशल्या के महल की ओर चल पड़े। उनसे लिपटकर बच्चों की तरह बिलखकर रोए। उनके चरणों में गिर पड़े। कौशल्या आहत थीं। उन्होंने कहा, "पुत्र, तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई। तुम जो चाहते थे, हो गया। राम अब जंगल में हैं। अयोध्या का राज तुम्हारा है। मुझे बस एक दुख है। कैकेयी ने राज लेने का जो तरीका अपनाया वह अनुचित था। निर्मम था। तुम राज करो पुत्र, पर मुझ पर एक दया करो। मुझे मेरे राम के पास भिजवा दो। "भरत ने रानी कौशल्या से क्षमा माँगी। सफ़ाई दी। रानी कैकेयी के व्यवहार पर ग्लानि व्यक्त की। कहा, "राम मेरे प्रिय अग्रज हैं। मैं उनका अहित सोच भी नहीं सकता। मैं निरपराध हूँ। "कौशल्या ने भरत को क्षमा कर दिया। उन्हें गले से लगा लिया। भरत सारी रात फूट-फूटकर रोते रहे।

सुबह तक शत्रुघ्न को पता चल गया था कि कैकेयी के कान किसने भरे। मंथरा अयोध्या के घटनाक्रम से घबरा गई थी। छिप गई। कुछ दिनों से उसे किसी ने नहीं देखा। भरत और शत्रुघ्न राम को वापस लाने पर मंत्रणा कर रहे थे। तभी शत्रुघ्न की दृष्टि, बचकर निकलती मंथरा पर पड़ी। उन्होंने लपककर उसके बाल पकड़ कर भरत के सामने लाए। भरत दासी की भूमिका बताई। शत्रुघ्न उसे जान से मार देने पर उद्यत थे। भरत ने बीच-बचाव किया। मुनि वशिष्ठ अयोध्या का राजसिंहासन रिक्त नहीं देखना चाहते थे। खाली सिंहासन के खतरों से वे परिचित थे। उन्होंने सभा बुलाई। भरत और शत्रुघ्न को आमंत्रित किया। भरत से कहा, "वत्स! तुम राजकाज सँभाल लो। पिता के निधन और बड़े भाई के वन-गमन के बाद यही उचित है। "भरत ने महर्षि का आग्रह अस्वीकार कर दिया। बोले, "मुनिवर, यह राज्य राम का है। वही इसके अधिकारी हैं। मैं यह पाप नहीं कर सकता। हम सब वन जाएंगे। और राम को वापस लाएंगे। "वन जाने के लिए सभी तैयार थे। भरत ने सबके मन की बात कही थी। सबकी इच्छा थी कि राम अयोध्या लौट आएं। अगली सुबह भरत सभी मंत्रियों और सभासदों के साथ वन के लिए चले। गुरु वशिष्ठ साथ थे। नगरवासी भी थे। अयोध्या की चतुरंगिणी सेना तो थी ही। राम तब तक गंगा पार कर चित्रकूट पहुंच गए थे। वहाँ एक आश्रम था। महर्षि भरद्वाज का। गंगा-यमुना के संगम पर। राम आश्रम में नहीं रहना चाहते थे। ताकि महर्षि को असुविधा न हो। महर्षि ने उन्हें एक पहाड़ी दिखाई। सुंदर स्थान। सुरम्य दृश्य। पर्णकुटी वहीं बनाई गई। भरत को सूचना मिल गई थी। वे चित्रकूट ही आ रहे थे। पूरे दल-बल के साथ। सेना के चलने से आसमान धूल अट गया। हर ओर कोलाहल। वे शृंगवेरपुर पहुँचे। निषादराज गुह को सेना देखकर कुछ संदेह हुआ। कहीं राजमद में आकर भरत राम पर आक्रमण करने तो नहीं जा रहे हैं? सही स्थिति पता चली तो उन्होंने भरत की अगवानी की। गंगा पार करने के लिए देखते-देखते पाँच सौ नावें जुटा दी। रास्ते में मुनि भरद्वाज का आश्रम पड़ा। उन्होंने भरत को राम का समाचार दिया। वह मार्ग दिखाया, जिधर से राम गए। वह पहाड़ी दिखाई, जहाँ राम ने पर्णकुटी बनाई। अयोध्यावासियों ने रात आश्रम में ही बिताई। इस संतोष के साथ कि राम अब दूर नहीं है।

आगे जंगल बना था। सेना चली तो वन में खलबची मच गई। जानवर इधर-उधर भागने लगे। पक्षियों ने अपना बसेरा छोड़ दिया। छोटी वनस्पतियों सेना के पांव तले कुचल गईं। बड़े वृक्ष थरथरा उठे। राम और सीता पर्णकुटी में थे। लक्ष्मण पहरा दे रहे थे। कोलाहल उन्होंने भी सुना। वे एक ऊँचे पेड़ पर देखने के लिए कि है। लक्ष्मण ने देखा कि विराट सेना चली आ रही है। सेना का ध्वज जाना पहचाना था। अयोध्या की सेना थी। वे उत्तर की ओर से आगे बढ़ रहे थे। लक्ष्मण ने पेड़ से ही चीखकर कहा, "भैया, भरत सेना के साथ इधर आ रहे हैं। लगता है वे हमें मार डालना चाहते हैं। ताकि एकछत्र राज कर सकें। "राम कुटी से बाहर आए। उन्होंने लक्ष्मण को समझाया। “भरत हम पर हमला नहीं करेगा। कभी नहीं। वह हम लोगों से भेंट करने आ रहा होगा, "राम ने कहा। "भैंट के लिए सेना के साथ आने का क्या औचित्य? दो भाइयों के मिलन में सेना का क्या काम? "लक्ष्मण आश्वस्त नहीं थे। वे सेना पर आक्रमण करना चाहते थे। राम ने उन्हें रोक दिया।
"वीर पुरुष धैर्य का साथ कभी नहीं छोड़ते। कुछ समय प्रतीक्षा करो। इस प्रकार का उतावलापन उचित नहीं है। "भरत ने सेना पहाड़ी के नीचे रोक दी। नगरवासियों से भी वहीं ठहरने को कहा। कोलाहल थम गया। उसकी जगह पुनः वन की नैसर्गिक शांति ने ले ली। भरत ने पहाड़ी को प्रणाम किया। शत्रुघ्न को साथ लेकर नंगे पाँव ऊपर चढ़े। पाँवों की गति अचानक बढ़ गई। भाई से मिलने की उत्कंठा में। वे और प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। पहाड़ी पर दूर से उन्हें एक छवि दिखी। वह राम थे। शिला पर बैठे हुए। पास ही सीता और लक्ष्मण बैठे थे। भरत दौड़ पड़े। राम के चरणों में गिर पड़े। उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। शत्रुघ्न ने भी राम की चरण वंदना की। बोले वे भी नहीं। उन्होंने दोनों को उठाकर सीने से लगा लिया। सबकी आँखों में आँसू थे। भरत साहस नहीं जुटा पा रहे थे। बड़े भाई को यह सूचना देने का कि पिता दशरथ नहीं रहे। “एक दु:खद समाचार है, भ्राता!" बहुत कठिनाई से उन्होंने कहा। "पिता दशरथ नहीं रहे। आपके आने के छठे दिन। दुख में प्राण त्याग दिए। "राम सन्न रह गए। शोक में डूब गए।

राम को पता चला कि भरत के साथ केवल सेना नहीं आई है। नगरवासी आए है। गुरुजन हैं। माता हैं। कैकेयी भी। राम-लक्ष्मण पहाड़ी से उतरकर उनसे भेंट करने आए। सबसे स्नेह से मिले। सीता को तपस्विनी के वेश में देखकर माताएँ दुःखी हुई। राम ने कैकेयी को प्रणाम किया। सहज भाव से। कैकेयी मन-ही-मन पछता रही थीं। अगले दिन भरत ने राम से राजग्रहण करने की आग्रह किया। समझाया। विनती की कि अयोध्या लौट चलें। राम इसके लिए तैयार नहीं हुए। "पिता की आज्ञा का पालन अनिवार्य है। पिता की मृत्यु के बाद मैं उनका वचन नहीं तोड़ सकता।" भरत को राजकाज समझाया। कहा कि अब तुम ही गद्दी सँभालो। यह पिता की आज्ञा है।

राम-भरत संवाद के समय मंत्री और सभासद वहाँ उपस्थित थे। मुनि वशिष्ठ भी। भरत बार-बार राम से लौटने का आग्रह करते रहे। राम हर बार पूरी विनम्रता और दृढ़ता के साथ इसे अस्वीकार करते रहे। महर्षि वशिष्ठ ने कहा, "राम! रघुकुल की परंपरा में राजा ज्येष्ठ पुत्र ही होता है। तुम्हें अयोध्या लौटकर अपना दायित्व निभाना चाहिए। इसी में कुल का मान है।"

राम ने बहुत संयत स्वर में कहा, "चाहे चंद्रमा अपनी चमक छोड़ दे, सूर्य पानी की तरह ठंडा हो जाए, हिमालय शीतल न रहे, समुद्र की मर्यादा भंग हो जाए, परंतु मैं पिता की आज्ञा से विरत नहीं हो सकता। मैं उन्हीं की आज्ञा से वन आया हूँ। उन्हीं की आज्ञा से भरत को राजगद्दी सँभालनी चाहिए। "राम किसी तरह लौटने को तैयार नहीं हुए। भरत के चेहरे पर निराशा के भाव थे। वे विफल हो गए थे। राम को मनाने में। आप नहीं लौटेंगे तो मैं भी खाली हाथ नहीं जाऊँगा। आप मुझे अपनी खड़ाऊँ दे दें। मैं चौदह वर्ष उसी की आज्ञा से राजकाज चलाऊगा। भरत का यह आग्रह राम ने स्वीकार कर लिया। अपनी खड़ाऊँ दे दी। भरत ने खड़ाऊँ को माथे से लगाया और कहा, "चौदह वर्ष तक अयोध्या पर इन चरण-पादुकाओं का शासन रहेगा।" सबको प्रणाम कर राम ने उन्हें चित्रकूट से विदा किया। राम की चरण पादुकाओं को एक सुसज्जित हाथी पर रखा गया। प्रतिहारी उस पर चवर डुलाते रहे। अयोध्या पहुंचकर भरत ने पादुका पूजन किया। कहा, ये पादुकाएँ राम की धरोहर हैं। मैं इनकी रक्षा करूंगा। इनकी गरिमा को आँच नहीं आने दूंगा। 'भरत अयोध्या में कभी नहीं रुके। तपस्वी के वस्त्र पहने और नंदीग्राम चले गए। जाते समय उन्होंने कहा, "मेरी अब केवल एक इच्छा है। इन पादुकाओं को उन चरणों में देखें, जहाँ इन्हें होना चाहिए। मैं राम के लौटने की प्रतीक्षा करूँगा। चौदह वर्ष।"