रविवार, 27 मार्च 2016

मीराबाई

मीराबाई

कवि परिचय :

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की कवियत्रियों में मीराबाई प्रथम कवियत्री है। मीराबाई राजस्थान के मेडता वीर शासक एवं रात्नसिंह की इकलौती पुत्री थी। उनका जन्म मेडता के चौकडी नामक गाँव में हुआ। उनका विवाह मेवाड के राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज के साथ मीरा का विवाह कर दिया। परन्तु उनका वैवाहिक जीवन बहुत ही संक्षिप्त रहा और विवाह के कुछ समय बाद ही कुँवर भोजराज की मृत्यु हो गयी। अतः बीस वर्ष की उम्र में ही मीरा विधवा हो गयी। शोक में डूबी मीरा को कृष्ण के प्रेम का सहारा मिला। राजगृह की मर्यादा की रक्षा के लिए मीरा को मारने का प्रयत्न किया, पर वे मीरा को मार न सके। इस घटना के बाद मीरा ने गृह-त्याग करके पवित्र स्थानों की यात्रा की। मीराबाई के प्रेम का मूलाधार श्रीकृष्ण ही है। उनके पदों में सर्वत्र ही उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों का प्रतिबिंब झलक उठता है। 
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"श्री गिरधर आगे नाचुंगी ।।
नाची नाची पिव रसिक रिझाऊं प्रेम जन कूं जांचूंगी।
प्रेम प्रीत की बांधि घुंघरू सूरत की कछनी काछूंगी ।।
श्री गिरधर आगे नाचुंगी ।।
लोक लाज कुल की मर्यादा, या मैं एक ना राखुंगी।।
पिव के पलंगा जा पौढुंगी, मीरा हरि रंग राचुंगी।।
श्री गिरधर आगे नाचुंगी"

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"दरस बिन दूखण लागे नैन।
जबसे तुम बिछुड़े प्रभु मोरे, कबहुं न पायो चैन।
सबद सुणत मेरी छतियां, कांपै मीठे लागै बैन।
बिरह व्यथा कांसू कहूं सजनी, बह गई करवत ऐन।
कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छमासी रैन।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेटण सुख देन।"

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"म्हारां री गिरधर गोपाल
म्हारां री गिरधर गोपाल दूसरां णा कूयां।
दूसरां णां कूयां साधां सकल लोक जूयां।
भाया छांणयां, वन्धा छांड्यां सगां भूयां।
साधां ढिग बैठ बैठ, लोक लाज सूयां।
भगत देख्यां राजी ह्यां, ह्यां जगत देख्यां रूयां
दूध मथ घृत काढ लयां डार दया छूयां।
राणा विषरो प्याला भेज्यां, पीय मगण हूयां।
मीरा री लगण लग्यां होणा हो जो हूयां॥"

भाषा के संदर्भ में अज्ञेय का विचार

भाषा के संदर्भ में अज्ञेय का विचार

अज्ञेय ने काव्य को रूढ़ अभिजात्य से मुक्त करने के लिए भाषा को नया संस्कार देना चाहा है। इस संदर्भ में कवि ने महसूस किया कि लोक व्यवहार में प्रचलित भाषा सम्प्रेषण की दृष्टि से बड़ी सशक्त और ईमानदार होती है, इसलिए अज्ञेय जी ने लोक भाषा के शब्द और मुहावरों को भाषा में गढ़ना शुरू किया। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजरते हुए अज्ञेय जी की भाषा पहले तद्भव-देशज शब्दों को अपनाती है, क्रमशः ठेठ होती हुई यह प्रायः गद्यात्मक हो गई है और उनकी रचना ‘महावृक्ष के नीचे’ में काव्य भाषा का विशुद्ध गद्यात्मक रूप प्रतिफलित हुआ है –

“जियो मेरे आजाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियों
जो विदेश जाकर विदेशी नंग को देखने के लिए
पैसे देकर टिकट खरीदते हो
पर घर लौट कर देशी नंग को ढँकने के लिए
खजाने में पैसा नहीं पाते।”


अज्ञेय की कविता की संरचना प्रायः गद्यात्मक है, छन्दमुक्त है, मगर शब्दों की संगति एस प्रकार है कि एक अंतर्निहित लय संयोजन पूरी कविता को कविता बना जाता है –

“मेरे घोड़े की टाप
चौखटा जड़ती जाती है
आगे के नदी, व्योम, घाटी, पर्वत के आस पास
मैं एक चित्र में लिखा गया सा
आगे बढ़ना जाता हूँ”।

अज्ञेय जी का मंतव्य है कि “मैं उन व्यक्तियों में से हूँ – और ऐसे व्यक्तियों की संख्या शायद दिन प्रतिदिन घटती जा रही है जो भाषा का सम्मान करते है और अच्छी भाषा को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं।” अज्ञेय न तो प्रयोग ‘वादी’ है न प्रतीकवादी - अपितु अभिव्यक्ति सामर्थ्य के लिए उनकी भाषा प्रतीकधर्मी है और प्रयोगधर्मी भी। “मेरी पीढ़ी का कवि एक ऐसे स्थल पर पहुँचा जहाँ उसे अपनी पिछली समूची परम्परा का अवलोकन करके अभिव्यक्ति के नए आयाम प्रकार खोजने की आवश्यकता प्रतीत हुई..... कवि ने नए सत्य देखे, नए व्यक्ति सत्य भी और सामाजिक सत्य भी। और उनको कहने के लिए उसे भाषा को नए अर्थ देने की आवश्यकता हुई। आवश्यकता काव्य के क्षेत्र में भी प्रयोग की जननी है और जिन जिन कवियों ने अनुभूति के नए सत्यों की अभिव्यक्ति करनी चाही, सभी ने नए प्रयोग किए”। काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें एकसूत्रता में बाँधता है।

अज्ञेय जी कहते हैं कि – “प्रत्येक शब्द का समर्थ उपयोक्ता उसे नया संस्कार देता है। इसके द्वारा पुराना शब्द नया होता है यही उसका कल्प है”। अज्ञेय का काव्यमय वक्तव्य संक्षिप्त, संयत और कलात्मक होता है। इस संक्षिप्तता में प्रतीक, बिंब, लय, संगीत, सब कुछ अपने औचित्य में समाया रहता है। सूक्ष्म संयोजन से व्यापक अर्थ प्रतीति वाले शब्दों को जोड़ने की कला अज्ञेय के रचना कल्प को विशिष्ट बनाती है।

अज्ञेय की कविता में प्रतीक हैं, संशिलष्ट बिम्ब हैं और अन्तः संगीत के साथ लयात्मकता भी सुरक्षित है। यह उनकी मौलिक प्रतिभा की देन है। लोकभाषा के शब्दों को अपनाकर कवि लोकजीवन से आत्मीय होना चाहता है।

अज्ञेय के विचारानुसार “प्रतीक वास्तव में ज्ञान का उपकरण है। जो सीधेसादे अभिधा में नहीं बँधता, उसे आत्मसात करने या प्रेषित करने के लिए प्रतीक काम देते हैं”। उनकी कलात्मक काव्य भाषा संघटित बिम्बों की भाषा है, जिस में गत्यात्मक, ध्वन्यात्मक, दृश्यात्मक और भोगे हुए जीवन के सापेक्ष सहज बिम्बों की भरमार है। अज्ञेय ने कविता में मिथकों को सामयिक सन्दर्भों से जोड़कर व्यक्त किया है। उनकी मिथ संरचना युगीन सत्यों से जुड़ी हुई व्यापक है और रूपात्मक स्तर पर इसमें प्रतीक, बिम्ब सभी का समन्वय है।

हिन्दी साहित्य में आधुनिक संवेदना के सक्रिय आविष्कारक अज्ञेय हैं। अज्ञेय की काव्य भाषा का एक विशिष्ट दर्शन है, जिस में अज्ञेय शब्द के अन्तरालों को नीरवताओं को सुनते हैं। वहाँ कवि ‘मौन’ को ही अधिक तीक्ष्ण अभिव्यंजना मान कर चला है। यह प्रयोग कविता में आधुनिक होने के साथ अनुभूति के स्तर पर अधिक व्यंजनात्मक हैं। अज्ञेय जी स्वीकारते हैं कि – “सही भाषा जब सहज भाषा हो जाए तभी वह वास्तव में सही है”।

श्रीशैलम् एक महान पुण्यक्षेत्र

श्रीशैलम् एक महान पुण्यक्षेत्र

श्रीशैलम् एक पवित्र शैव क्षेत्र है। कर्नूल जिला, नल्लमलाँ पहाड का यह सुप्रसिद्द प्राचीन पुण्य क्षेत्र है। यहाँ भगवान मल्लिकार्जुन स्वामी और भ्रमरांबिकादेवी की पूजा हो रही है। यह भगवान शिव के बाहर ज्योतिलिंगो में से एक है। ऐतिहासिक विषय है कि बैद्धधर्म के आचार्य नागार्जुन इसी पहाड पर रहते थे। श्री शंकराचार्य ने शिवनंदलहरी में श्री शैलेश्वर की स्तुति की। सारे पुण्य क्षेत्र, सर्वतीर्थ युक्त यह सिद्ध क्षेत्र साक्षात भूलोक कैलाश, अखंड भूमंडल में आध्यात्मिक सुसंपन्न भारत खंड में श्रीशैलम एक महान पुण्यक्षेत्र है। पौराणिक शिखर श्रीशैलम की प्रधानता, क्षेत्र का प्रस्तापन, भक्त शिलाद की कहानी, करवीर की कहानी, त्रिपुरासुर संहार, पाताल गंगा की महानता, साक्षिगणेश, नंदी मंडलम, ओंकार क्षेत्र की महिमा दर्शन का फल द्वारा तथा उपदार, शंकरी पुर, खेचरी बिलम, अलंपूर, रससिद्ध की कहानी, अक्कमहादेवी की कहानी, भ्रमरांब की कहानी, ऐलेश्वर के क्षेत्र तथा तीर्थ, मुक्ति शिखरम, फलधृति आदि विषयों की विशेषताएँ यहाँ उपलब्ध है। इस पुण्यस्थल का दर्शन हमारे लिए सौभाग्य है।