गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य - डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार

Review of Research Journal, 

नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य
डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार,
पूर्वसहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग,
तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय,
तमिलनाडु, भारत।
www.thehindiacademy.com
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ABSTRACT: व्यंग्य कविताओं में नागार्जुन बेजोड़ है। नागार्जुन के काव्य का बहुत बड़ा हिस्सा राजनीतिक कविताओं से अटा पड़ा है। नागार्जुन की राजनीतिक कविताओं में दृष्टि का पेनापन और कबीर की तरह खुली आँखों में जीवन का निरीक्षण है। समकालीन राजनीतिक और उससे संचालित जीवन से गहरे जुड़े हुए थे। अवसरवादिता चुनाव के टिकट प्राप्त करने की दौड़-धूप, नेताओं के आडंबर आदि सब पर कवि की दृष्टि रही है और उसमें व्याप्त बुराइयों पर व्यंग्य किया गया है। यही स्थिति आज हम इस साल चुनाव में भी प्रत्यक्ष रूप से देख सकते है।

KEYWORDS: राजनीतिक व्यंग्य, सामाजिक अव्यवस्था, अंध सत्तावाद, मानवीय सम्बंध, स्वार्थपरकता, भ्रष्टता एवं कर्तव्यविमुखता आदि।

नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य


डॉ. प्रकाश चन्द्र भट्ट के अनुसार :
"अकेले नागार्जुन की ही कविता पढ़कर हिन्दी कविता के व्यंग्य का आरंभिक रूप-विकास और उत्कर्ष की अवस्थाओं को जाना जा सकता है। वे हिन्दी व्यंग्य काव्य के एक मात्र सबल और सशक्त प्रतिनिधि है। व्यंग्य के विभिन्न स्तरों से उनकी कविता सजी हुई है। अशिव का प्रतिकार और समाज के मंगल का ध्येय उससे ध्वनित हो रहा है1

डॉ. शेरजंग गर्ग के शब्दों में :
"ऊवड़-रबाबड़ किन्तु चट्टान की सी मजबूती रखनेवाली, क्षिप्र और हथौड़ी सी चोट करने वाली, वे फक्कड़ और निर्भिक व्यंग्य रचनाएँ लिखने के कारण नागार्जुन का स्थान अन्य व्यंग्यकारों की तुलना में हमेशा अलग रहेगा2

नागार्जुन ने राजनीतिक पर आधारित व्यंग्य कविताओं की खूब रचना की है। उनका सबसे प्रखर रूप ही राजनीतिक व्यंग्य कविताओं में निखर कर आया है। जनता का जीवन और उसके भूत, वर्तमान और भविष्य का निर्णय राजनीति कर रही है। नागार्जुन के काव्य का बहुत बड़ा हिस्सा राजनीतिक कविताओं से अटा पड़ा है। उनकी प्रारंभिक कविताओं में नेहरू युग, गाँधी युग की पहचान मिलती है तो इधर की कविताओं में इंदिरा युग जनता शासन काल, लोकतांत्रिक उथल-पुथल, राजनीतिक हिंसा, भ्रष्टाचार, अंध सत्तावाद तथा राजनीतिक की जनविरोधी नीतियों का हाल चाल अंकित है।

नागार्जुन राजनीतिक दृष्टि से एक सजग लेखक थे, जो तमाम चीजों को गहराई से समझते थे, और परखते थे, "नागार्जुन प्रगतिशील कवियों के सिरमोर थे, खास बात यह है कि उनमें वे राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक सजग थे, ऐसी स्थिति में राजनीतिक उथल-पुथल के युग में वे भारी संख्या में राजनीतिक कविताएँ लिखते थे, तो यह उनके लिए आकस्मिक नहीं था, राजनीतिक कविताओं को साहित्य में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है। कारण यह है कि उनमें राजनीति बहुत स्पष्ट रूप से आती है और उनकी शैली में प्रायः एक ऐसा सीधापन' होता है, जो अभिजात साहित्यिक कवि को बर्दाश्त नहीं होता है3 इस प्रकार नागार्जुन की राजनैतिक विचार एकदम स्पष्ट थी। वे समकालीन राजनीतिक और उससे संचालित जीवन से गहरे जुड़े हुए थे। अपनी सीधी सादी भाषा में उनकी व्यंग्य वद्रुपता देखिए जिसमें जिसपर व्यंग्य किया गया है वह तिलमिलाकर रह जाता है तो उसे कवि चुनौती भी देता है

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ वहाँ दगने लगी, शासन की बंदूक
जली ढ़ूँठपर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक4

स्पष्टवादिता नागार्जुन को सबसे बड़ी विशेषता थी, इतनी स्पष्टवादिता हिन्दी के किसी भी कवि में नहीं मिलेगी वे बराबर शासक हो या राजनीतिक दल, सब पर गहरी नजर रखते हैं।

सच्चा जन कवि अपने आस पास होने वाली घटनाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता, हमारे रोजमर्रा के जीवन में आम आदमी कितनी दयनीय स्थिति के बीच जी रहा है और आज की राजनीति इतनी फुदड़ होती जा रही है कि उसे साधारण जन के दुःख दर्द से कोई मतलब नहीं, अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए वोट की राजनीति के लिए कभी हरिजनों पर अत्याचार तो कभी सांप्रदायिक दंगों की आँच में अपने-अपने हाथ सेंकते हैं। नागार्जुन जन कवि होने के कारण राजनीतिक रूप से अधिक संयत कवि हैं। इसी क्रम में उन्होंने गाँधी, नेहरू और इंदिरा पर तो कविताएँ लिखते ही थे मोरारजी, राजनारायण, संजयगाँधी आदि पर भी व्यंग्य कविताएँ लिखी है। अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और राजनीति से संबंधित कविताओं की भी रचनाएँ की थी।

भूस का पुतला' शीर्षक कविता कांग्रेसी विचारधारा को उपहासात्मक संदर्भ को संकेतिक शैली रेखांकित-व्याख्यायित करती है। इस कविता में कवि ने भूस के पुतले को कांग्रेसियों का प्रतीक माना है। जिस प्रकार भूस का पुतला' हल्का, भीतर से खोखला निष्प्राण और निष्क्रिय हो गये हैं, कवि की दृष्टि में उसी प्रकार कांग्रेसी भी खोखले, निष्प्राण और निष्क्रिय हो गये हैं। कवि कहते है कि भूस का पुतला टांग फैलाकर, बाँहे उठाकर खड़ा है। यह ककड़ी तरबूज की खेती की निगरानी करता है। लेकिन उसका मालिक घर में निश्चिंत होकर अपाहिज की भांति सोया है। व्यंजना है कि यही स्थिति देश की भी है। जनता निश्चित सो रही है और देश की रक्षा का दायित्व कांग्रेसी रूपी भूस के पुतले को दे दिया है। कविता के अंत में कवि 'दिल, दिमाग भूस की खद्दर की थी खान' कहकर स्पष्ट रूप में परिधान के आधार पर कांग्रेसियों पर व्यंग्य करता है5

आये दिन बहार के शीर्षक कविता चुनाव के संदर्भ को सत्ता की तरफ से टिकट मिलने के परिप्रेक्ष्य में उजागर करती है। कवि कहते हैं कि दिल्ली से नेता भिन्न-भिन्न गति लय में चुनाव टिकट लेकर लौट रहे हैं। कवि कहते है कि इन नेताओं में सत्ता की तरफ़ से टिकट मिलने पर प्रस्नता की लहर दौड़ गयी है। कोई रीतिवादी नायिका अपने प्रियतम को देखकर भी इतनी प्रसन्न नहीं हुई होगी, जितना कि कांग्रेसी नेता टिकट मिलने पर प्रसन्न है। स्वेत-स्याम रतनार आँखियाँ' रीतिवादी नायिका की ओर संकेत करता है और दाने अनार केनौटंकी संस्कृति वाले नये लोकगीत की तरफ। कवि स्वेत-स्याम रतनार' तथा 'दाने अनार केआदि आलम्बनों का प्रयोग कर व्यंग्य में प्रौढ़ता की गहराई पैदा कर देता है।
"स्वेत-स्याम रतनार आँखिया निहार के
सिण्डिकेटी प्रभुओं की पगधूर झार के
दिल्ली से लौटे हैं कल टिकट मार के
खिले है दाँत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के।"6

रहा उनके बीच मैं” शीर्षक कविता में कवि नेताओं पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि नेतागण राजनीति के दाँव पेच को जानकर भी यह पार्टी अच्छी है वह पार्टी अच्छी है उसमें लगे रहते हैं। पार्टी के अंतर्गत अच्छे-बुरे कामों के बीच लगे रहते हैं। किसी की हार होती है तो घँस जाते है और फिर दुबारा चुनाव के समय आने पर चौराहों नुक्कड़ों पर स्पीच देते है। इस प्रकार कवि राजनीति दाव पेंच को रेखांकित कर नेताओं पर व्यंग्य किया है।
रहा नके बीच मैं!
था पतित मैं नीच मैं
दूर जाकर गिरा बेबस पतझढ़ु में
धँस गया आकंठ कीचड़ में सड़ी लाशे मिलीं
उनके मध्य लेटा रहा ऑखें मींच, मैं
उठा भी तो झाड आया नुक्कड़ों पर स्पीच मैं!
रहा उनके बीच मैं!
था पतित मैं नीच मैं!!7

 इन्दुजी क्या हुआ आपको शीर्षक कविता व्यक्तिगत राजनीतिक कविता श्रीमती इंदिरागाँधी की कूटनीतिज्ञता, सत्तामदांघता, भ्रष्टता और तानाशाही प्रशासनिकता के संदर्भ को तीखी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया के तौर पर रेखांकित- व्याख्यायित करती है। कवि को श्रीमति गाँधी के व्यक्तित्व से काफ़ी क्षोभ है तथा उसके प्रति कार्य विद्रोह की भावना भी प्रबल है। कवि मानवतावादी विचारधारा के पोषक है। वह जन जीवन को शांत सुरक्षित एवं सुखी देखना चाहते हैं। इसलिए वह कथाकधित प्रशासन के जुल्म अन्याय का विरोध करता है। वह तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त करता हुआ कहता है :-
क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को।
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे के तार दिया,
वोट दिया बाप को
इन्दु जी क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?”8
इसी प्रकार कवि श्रीमति गाँधी के प्रति रोष प्रकट करते हुए कहते हैं कि कथाकथित प्रधानमंत्री ताशाह बन गयी है। वह सत्ता के मद में बेहोश हो गयी है। बाप के नाम पर वोट माँग रही हैं, वे छात्रों के आन्दोलन को दबाने के लिए बन्दूकें चला रही हैं। उनका कूर प्रशासन छात्रों के खून का प्यासा हैं। यद्यपि कथित प्रधानमंत्री बचपन से गाँधी और टैगोर के पास रही, फिर भी उनके संगत के छाप नहीं पड़ी। अन्त में कवि कहते हैं कि वह रानी-महरानी हैं वह नवाबों की नानी है। वह नफाखोर सेठों की सगी माई है। वह काले बाजार की कीचड़ है। अंत में कवि उसके तानाशाह को हिटलर से साम्य करता है :-
सुन रही गिन रही / एक एक टाप को
हिटलर के घोड़े की, हिटलर के घोड़े की
एक एक टाप को
छात्रों के खून से नशा चढ़ा आपको
यही हुआ आपको / यही हुआ आपको9
इस प्रकार इस कविता में कवि ने श्रीमति इंदिरा गाँधी की नृशंस हिंसा प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य किया है।
तीनों बन्दर गाँधी के कविता में अपने-आपको गाँधी का पटु शिष्य मानने वाले तीन बन्दरों पर कवि ने व्यंग्य की मीठी चुटकी ली है। ये बन्दर गाँधी के भी ताऊ है, जो गांधी सूत्रों को अपनी इच्छानुसार परिभाषित कर रहे हैं।
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के10
आगे हैं : -
दिल की कली खिली है, खुश है तीनों बन्दर बापू के
बूढे है फिर भी जवान है तीनों बन्दर बापू के
सेठों के हित साध रहे हैं ..........................
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं .......................11
सर्वोदयी समाज के ये मठाधीश प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सत्ताधारी कांग्रेस से लाभान्वित हो रहे हैं, फिर भी प्रत्यक्ष रूप से दलातीत सिद्ध करने में कोई कसर नहीं उठा सकते : -
दल से उपर दल से नीचे
मुस्काते आँखे मींचे हैं तीनों बन्दर बापू के
करें रात दिन टूट हवाई
बदल बदल कर चखे मलाई तीनों बन्दर बापू के,”12
प्रस्तुत कविता गांधीवाद के तहत नेताओं की स्वार्थपरकता, भ्रष्टता एवं कर्तव्यविमुखता के संदर्भ में स्वर को मुखरित करती हैं।
 समसामयिक राजनीति में बापू के तीनों बन्दर गीता की खाल छील रहें हैं। उपनिषदें उनकी दाल हो गये हैं। कवि इन नेताओं की स्वार्थपरकता पर व्यंग्य करता हुआ कहता है :-
छील रहे है गीता की खाल
उपनिषदें हैं उनकी ढाल
उधर सजे मोती के थाल
इधर जमें सतयुगी दलाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवर लाल।13

नागार्जुन परिवेश की एक-एक महत्वपूर्ण घटना पर कविता लिखते हुए उन सारी कविताओं के द्वारा इन घटनाओं के बीच समानता का एक बिन्दु उकेड़ते हैं और समकालीन यथार्थ सम्पूर्णता में परिभाषित हो जाता है। समानता के इस बिन्दु की ओर नागार्जुन अपनी ओर से निश्चित संकेत नहीं करते, दरअसल कविता का पाठक विभिन्न सामाजिक राजनैतिक घटनाओं पर लिखी गयी इन कविताओं से गुजरते हुए अपनी संवेदना के स्तरपर इन घटनाओं के कारण का प्रस्थान बिन्दु को स्वयं ही महसूस करने लगता है। समय के एक दौर में लिखी गयी अपनी कविताओं का निहितार्थ प्रेषित करने की प्रक्रिया में अपने पाठक या श्रोता की अपनी रचना में यह हिस्सेदारी एक जन कवि द्वारा ही संभव है। इस प्रकार नागार्जुन एक जन कवि थे।

"नागार्जुन के पास जो वैविध्य है समूचे विश्व का जो चित्र नागार्जुन में है, जो गहरी सहानुभूति आस्था तथा सहभागिता उनकी जनता के साथ थी, जिस तरह वे अपनी सारी ताकत देश से प्राप्त करते थे, अपनी संस्कृति तथा विश्व संस्कृति से प्राप्त करते थे, वह सिर्फ वाल्ट पिटर्मन में देखने में आती है14

निष्कर्ष :

नागार्जुन की यह विशेषता है कि सामयिक समस्याओं पर उनकी प्रतिक्रिया तुरन्त व्यक्त हो रही है। देश की आजादी का दुरुपयोग करने वाले नेता, जमींदार और पूँजीपति सबका उन्होंने व्यंग्य का निशाना बनाया है। कवि की इधर की कविताओं में राजनीतिक घटनाओं पर काफ़ी सुन्दर व्यंग्य लिखे गये हैं। अवसरवादिता चुनाव के टिकट प्राप्त करने की दौड़-धूप, नेताओं के आडंबर आदि सब पर कवि की दृष्टि रही है और उसमें व्याप्त बुराइयों पर व्यंग्य किया गया है। सदैव जनशक्ति का आदर करनेवाला, अवसरवादी नेताओं का नकाव उलटनेवाला रूप लेकर यह जन-कवि उपस्थित हुआ है। नागार्जुन कहता है कि – आज सच बोलना जुर्म हो गया है। सच बोलने पर हानि उठानी पडती है और झूठ बोलने पर मेवा-मिसरी चखते हैं। चापलूसों की इस बढती हुई कद्र पर कवि ने व्यंग्य किये हैं, जिसमें सामाजिक अव्यवस्था स्पष्ट हो रही है। पर इसका मूल दूषित राजनीति ही है15

संदर्भ सूची :
1) नागार्जुन - सत्यनारण – पृ.52
2) नागार्जुन - सत्यनारण – पृ.52
3) नागार्जुन - सत्यनारण - पृ.130
4) नागार्जुन - सत्यनारण - पृ.118
5) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ – पृ.93
6) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.102
7) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.22
8) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.104
9) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.104
10) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
11) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
12) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
13) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
14) नागार्जुन - सत्यनारण – पृ.130
15) नागार्जुन : जीवन और साहित्य – पृ. 59

श्रीलालशुक्ल के उपन्यासों में चित्रित राजनीति स्थिति - डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार

PRAMANA RESEARCH JOURNAL, 
ISSN: 2249-2976, 
Impact Factor - 6.2, 
Volume 9, 
Issue 3,
P.No.717-727, 
March 2019.

श्रीलालशुक्ल के उपन्यासों में चित्रित राजनीति स्थिति
डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार,
पूर्वसहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग,
तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय,
तमिलनाडु, भारत।
www.thehindiacademy.com
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ABSTRACT: प्रजातंत्र देश में कोई भी हो स्वतंत्र रूप से जीना, उनके जीवन में कहीं बाधा न पड़ना आदि। देश में रहनेवाले जनता की रक्षा के लिए राजनीति व्यवस्था स्थापित हुई। देश की जनता के लिए उनकी सुरक्षा के लिए ही संविधान है। लेकिन आज नेतागण इस दिशा में न सोचकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जी रहे है। स्वार्थ के कारण समाज के प्रति अपने दायित्व भी भूल रहे है। राजनैतिक नेतागण देश को आगे बढ़ाने के अलावा पतनोन्मुख दिशा की ओर ले जा रहे है। देश की स्थिति ऐसे ही रहने से आगे बढ़ाने में तकलीफ पहुँचते हैं। इस स्थिति में बदलाव लाने की कोशिश श्रीलालशुक्ल के उपन्यासों में प्रस्तुत किया हैं।

KEYWORDS: राजनीतिक स्थिति, सामाजिक अव्यवस्था, अंध सत्तावाद, मानवीय सम्बंध, स्वार्थपरकता, भ्रष्टता एवं कर्तव्यविमुखता आदि।

श्रीलालशुक्ल के उपन्यासों में चित्रित राजनीति स्थिति



समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए नियमों की आवश्यकता है। राजनीति इस आवश्यकता की पूर्ति करती है। जनता के प्रतिनिधि के रूप में संविधान में बैठे नेतागण देश को विकास पथ पर ले जाने के लिए विभिन्न योजनाओं को बनाकर अमल कराते हैं। देश का विकास हर एक नागरिक का कर्तव्य होने पर भी नेताओं की जिम्मेदारी अधिक मानी जाती है। उनके किसी भी निर्णय से देश के विकास में बाधा नहीं पडना चाहिये। प्रजातंत्र देश में कोई भी हो स्वतंत्र रूप से जीना, उनके जीवन में कहीं बाधा न पड़ना आदि। देश में रहनेवाले जनता की रक्षा के लिए राजनीति व्यवस्था स्थापित हुई। देश की जनता के लिए उनकी सुरक्षा के लिए ही संविधान है। लेकिन आज नेतागण इस दिशा में न सोचकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जी रहे है। राजनीति की यह काली अजगर-सी सर्वग्राहिणी छाया जीवन के तमाम अच्छे मूल्यों को ग्रसित करती गई और गाँव भी उसके प्रभाव से अछूते न रह सके। गाँव के जीवन की इस टूटती हुई रीढ़ और बदलते हुए जीवन-मूल्यों को, उसकी विसंगतियों और विदूषताओं को प्रभावित करनेवाले राजनीतिक स्थिति से आज डर रहे है। गाँव की राजनैतिक जिंदगी की एक जीवन्त सच्चाई श्रीलाल शुक्ल के प्रमुख उपन्यास 'राग दरबारी में देख सकते है। रूप्पन के बुआ के लड़के रंगनाथ कहा कि "देखो दादा, यह तो पॉलिटिक्स है। इसमें बड़ा-बड़ा कमीनापन चलता है। यह तो कुछ भी नहीं हुआ। पिताजी जिस रास्ते में है उसमें इससे भी आगे कुछ करना पड़ता है। दुश्मन को जैसे भी हो, नित करना चाहिए। यह न चितकर पाएँगे तो खुद चित हो जाएँगे और फिर बैठे चरन की पुडिया बाँधा करेंगे और कोई टका को भी न पूछेगा।''1 इन पंक्तियों से आजकल की राजनैतिक स्थिति का यथार्थ चित्रण दिखाया है। इस प्रकार की राजनैतिक स्थिति को व्यंग्य करते हुए श्रीलाल शुक्ल राग दरबारी' उपन्यास में रंगनाथ के माध्यम से समझाया कि "ड्राइवर साहब तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है2

चुनाव के समय नेता अपने जाति या समाज में प्रतिष्ठित बडे आदमी के नाम लेकर प्रचार के माध्यम से रूप में फायदा उगते हैं। उस बडे आदमी के नाम से जनता पहले से ही परिचित रहने के कारण से उस नेता के प्रचार में फायदा होते है। आजकल ऐसी ही स्थिति इस समाज में देख रहे हैं। श्रीलाल शुक्ल बिस्रामपुर का संत उपन्यास में कुंवर जयंती प्रसाद भी अपने भाई के नाम रखकर चुनाव में प्रवेश करता है। बड़े भाई के नाम ही प्रचार का साधन बनाकर चुनाव में शामिल होते है। इसका चित्रण इस प्रकार है कि – बड़े प्यार से कुंवर जयती प्रसाद सिंह के गुब्बारे की हवा निकालते हुए उन्होंने कहा, जयंती देखो, मेरा अंदाजा सही निकला न? अब तुम दिल्ली की निगाह में चढ़ गये हो। वैसे तुम किस काम के लिए अमेरीका जा रहे हो, तुम उससे भी बड़ी जिम्मेदारियों के लायक हो। पर तुम्हारे इस चुनाव से तुम्हारी योग्यता का कोई सम्बन्ध नहीं है। असली चीज है तुम्हारे बडे भैया। वे समाजवादी पार्टी के होकर सरकार के जोरदार विरोधियों में गिने जाते है। और सरकार की ओर से इसका जवाब यही हो सकता है कि तुम्हें खींचकर अपनी ओर बैठा लें।3 इस प्रकार समाज में आजकल राजनीतिक कार्रवाई चल रहे हैं। इसका वास्तविक चित्रण श्रीलाल शुक्ल अपने उपन्यास में मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।

आजकल के नेताओं की रीति बिलकुल बदल गई। बदलती हुई समाज में व्यक्ति स्वार्थ भावनाओं से कुण्टित होकर समाज को लूट रहे है। स्वार्थ के कारण समाज के प्रति अपने दायित्व भी भूल रहे है। राजनीतिक व्यवस्था भी स्वार्थ के कारण कलिषित हो गया। नेतागण आज समाज को लूट रहे है। राजनीतिक नेता अपने देश के जनता को सम दृष्टि से देखना चाहिए। अपनी स्वार्थ की पूर्ति के लिए किस प्रकार राजनीतिक खेल खेल रहे हैं, इसका चित्रण 'राग दरबारी उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि उनके नेता होने का सबसे बड़ा आधार यह था कि वे सब को एक निगाह से देखते थे। थाने में दारोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर - दोनों उनकी निगाह में एक थे। उसी तरह इम्तहान में नकल करनेवाला विद्यार्थी और कॉलिज के प्रिंसिपल उनकी निगाह में एक थे। वे सब को दयनीय समझते थे, सबका काम करते थे, सब से काम लेते थे। उनकी इज्जत थी कि पूंजीवाद के प्रतीक दुकानदार उनके हाथ सामान बेचते नहीं, अर्पित करते थे और शोषण के प्रतीक इक्केवाले उन्हें शहर तक पहुँचाकर किराया नहीं, आशीर्वाद माँगते थे। उनकी नेतागिरी का प्रारम्भिक और अंतिम क्षेत्र वहाँ का कॉलिज था, जहाँ उनका इशारा पाकर सैकडों विद्यार्थी तिल का ताड़ बना सकते थे और जरूरत पड़े तो उस पर चढ़ भी सकते थे4 नेतागण अपने कार्यो के लिए सरकार के नाम पर लगा देते थे। कुछ भी करने दो, वह काम राष्ट्र-सेवा के नाम लिखा देते थे। यह भी एक प्रकार से लूटने की तरीका है। इसका चित्रण बिस्रामपुर का संत उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि मुख्य मंत्रियों को प्रधानमंत्री से मिलने के लिए अब घंटों और कभी-कभी कई दिनों तक हिलगे रहना पडा था। पर इस तरह बिताया गया समय प्रतीक्षा के खाने में नहीं, राष्ट्र-सेवा के नाम लिखा जाता था।5 पूरे समाज के सामने नेतागण रहकर भी सब कर रहे हैं। चुनाव के समय वोट पाने केलिए झूठी सबूतें देकर अपनी ओर आकर्षित कर अपना काम पूरा कर डालते है। वोट पाने के लिए पैसे और शराब की बोतलें देकर पूरे जनता के खून पी रहे है। ऐसे खून खींचने वाले मच्छरों के बारे में श्रीलाल शुक्ल 'राग दरबारी' उपन्यास में रामाधीन के शब्दों में समझाया कि –
सनीचरा क्या कह रहा था?
वोट माँग रहा था।
तुमने क्या कहा?
कह दिया कि ले जाओ। मुझे कौन वोट का अचार रखना है।
वोट उसे दोगे तो अपना भला-बुरा समझकर,
ऊंचा-नीचा देखकर देना।
सब देख लिया है। तुम माँगते हो तो तुम्हीं ले जाओ।....
जिसे कहोगे, उसी को दे देंगे। हम तो,
तुम्हारे हुकुम के गुलाम है।......''6

इस प्रकार की दयनीय स्थिति में आजकल की राजनीति है। आजकल के नेतागण पूरे राजनैतिक करवट बदला रहे है। उनकी यह रीति से देश के लिए लाभ तो बाद की बात है परन्तु ज्यादा हानि हो रहा है। समाज में स्थित विभिन्न राजनीतिक कुरूपताओं का नग्न चित्रण करके श्रीलाल शुक्ल ने अपने उपन्यासों में सच्चा एवं यथार्थ भारतीय समाज को दिखाया हैं।

राजनैतिक नेता चुनाव के समय जनता के पास जाकर ऐसे भाषण देते है कि उनके प्रति विश्वास, भरोसा आ जाय। उनके यह भाषण चुनाव के बाद भी भाषण जैसा ही रह जाते है। पूरे समाज को झूठी भरोसा दिलाकर अपने आप खुशी मनाते है। राजनैतिक नेता लोग अपनी स्वार्थपरता के कारण अनावश्यक विषयों में जनता को बढ़काकर जनता, प्रान्त, राज्य एवं राष्ट्र के प्रति भी अन्याय करने के लिए भी तैयार हो रहे है। अपनी भाषण शक्ति से अच्छे या राष्ट्रहित कार्यों के लिए उपयोग न करके बुराई के लिए उपयोग कर रहे है। इसका चित्रण उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल ने इस प्रकार चित्रित किया है कि - "एक नेता झटकदार सिर, मटकदार कमर और हथौंडे की तरह चलते नाजुक हाथों से शहर के इस नए हिस्से में मजदरों के शोषण पर भाषण दे रहा था। जाहिर..... भाषण सुनने के बाद..... भाषण उगलनेवाले नेता और मंच पर बैठे लोगों की शक्ल ही बता रही थी कि ये बोलने वालों की कौम के हैं, करनेवालों में से नहीं। यह भी मालूम हो गया था कि मजदूरों की विपदा का हवाला वह सिर्फ उदाहरण के लिए, उपमा और रूपक अलंकारों का विधान रचाने के लिए, दे रहा है।7 उनकी जो बातें पूरे जनता को हवा में उड़ा देती है। उनकी हर एक बात पर जनता को विश्वास कम हो गयी है। समाज में जो निम्न वर्ग जनता जैसे मजदूर, किसान आदि गरीबों को छोटे-छोटे सुविधाएँ दिलाने की बातें कहने पर भी यह बात भाषण तक ही सीमित हो रहे है। इसका जीवंत चित्रण पहला पड़ाव उपन्यास में परमात्मा जी के संदर्भ में समझाया कि परमात्मा जी को हमें इस यूनियन का दूसरा संरक्षक बनाकर उन्हें उसे परम पुनीत काम में जोतने की कोशिश करनी चाहिए जिसे गाँधीवादी सुधारकों से लेकर सरकारी प्रचारक तक रचनात्मक कार्यक्रम' कहते हैं : मजदूरों के लिए छोटा-सा औषधालय, उनके बच्चों के लिए छोटा-सा स्कूल (आश्रमनुमा, ताकि इमारत के अभाव पर कोई उंगली न उठाए) प्रौढ़ों की शिक्षा के लिए एक शत्रिशाला जिसमें न प्रौढ होंगे, न शिक्षा होगी, जो सरकारी अनुदान के लिए सिर्फ एक छोटे से सोख्ते का काम करेगी जैसा कि ऐसी लगभग सभी शालाएँ कर रही हैं और जिसके सहारे यूनियन के दूसरे रचनात्मक कार्यक्रम चलेंगे।"8 ऐसे ही किसानों के प्रति सहानुभूति बातें, उनके भलाई के अलावा शोषण आजकल की नियति है। राग-दरबारी' उपन्यास में इसका जीवंत चित्रण मिलता है। उन दिनों गाँव में लेक्चर मुख्य विषय खेती था। इसका यह अर्थ कदापित नहीं कि पहले कुछ और था। वास्तव में पिछले कई सालों से गाँव वालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। गांव वाले इसका विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से यह मानकर चलता था कि गाँव वाले इसका विरोध करेंगे। मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारत वर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते।''9 अपनी गलतियों को दूसरों पर आरोप करना आज एक तरीका हो गया। राजनीतिक नेता अपने भाषण में देनेवाले योजनाएँ चालू करते है, लेकिन वह तो शुरूवात में ही रह जाते है। इसके संदर्भ में 'राग दरबारी' उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने प्रस्तुत किया है कि मैदान के एक कोने पर वन-संरक्षण, वृक्षारोपण आदि की कुछ योजनाएँ भी चालू की गयी थीं। वे चलीं था नहीं, यह बहस की बात है।''10 इस प्रकार अपनी स्वार्थ के लिए पूरे समाज को भ्रष्ट कर रहे है।

आजकल के चुनाव में नारे लगाने की तरीका खास व्यक्तियों को लेकर या धार्मिक भावनाओं को लेकर चल रहे है। लम्बे भाषण देने से लोग न सुनते हैं, उल्टा ऊब जाते हैं। छोटे-छोटे नारे है तो अच्छा रहता है। जनता में उत्साह बढ़ा सकते हैं। स्वतंत्र आंदोलन में बड़े-बड़े लोग विभिन्न नारे देकर संपूर्ण भारतवासियों को स्वतंत्र संग्राम की ओर आकर्षित किया। परन्तु आज स्वार्थ राजनीति से गलत नारे देकर खुद अपने कारोबार बढा रहे है। जनता को दोखा दे रहे है। राग दरबारी' में श्रीलाल शुक्ल ने इस विषय को अत्यंत व्यंग्यपूर्ण शैली में चित्रित किया है। यथा - जय बोलने के मामले में हिन्दुस्तानी का भला कोई मुकाबला कर सकता है। बात सियावर रामचंद्र से शुरू हुई, फिर पवनसुत हनुमान की जय। फिर न जाने कैसे, वह जय सटाक् से महात्मा गाँधी पर टूटी : बोल महात्मा गाँधी की जय। फिर तो हरी झण्डी दिख गयी। पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक जय दी गयी। एकएक जय प्रदेशीय नेताओं को। एकएक जय जिले के नेताओं को और फिर असली जय : बोले, वैद्य महाराज की जय।11 इस प्रकार नेतागण वोट पाने के लिए धार्मिक भावनाएँ या बड़े लोगों के नाम पर नारे लगाने की तरीका आज प्रसिद्ध हो गयी है।

राजनीति के नाम पर आज अनेक हड़ताल चल रहे हैं। एक नेता, दूसरे नेता को मारना या कार्यकर्ताओं को मारना ये सब एक तरह से गुंडागर्दी कह सकते हैं। इससे समाज में चैन चले जा रहे हैं। हर एक दिल में डर था कि चुनाव के समय कौन, कब मरता है किसी को भी पता नहीं चल रहा है। पता चलने पर भी पूरे कानून नेताओं के हाथ में रहने के कारण जनता ही इसका बोझ ले रहे है। कोई नेता मरने से दूसरे नेताओं को मारना, इसके साथ अपना सत्ता जमाने के लिए जनता को डराना आज राजनीति में साधारण विषय हो गया है। इसका जीवंत चित्रण श्रीलालशुक्ल के प्रमुख उपन्यास राग दरबारी में इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि "रिपुदमन सिंह ने अपने छोटे भाई सर्वदमन को बुलाकर प्रेम से कहा कि भाई, अगर इस लड़ाई में मेरी जान निकल जाय और मेरे साथ में पच्चीस आदमियों की भी जान निकल जाय, तो तुम क्या करेंगे?........ भाई की बात का जवाब सर्वदमन ने आत्मविश्वास की वाजिब मात्रा के साथ दिया। बोले, भाई, अगर तुम और तुम्हारे पच्चीस आदमी इस लड़ाई में मारे गये तो दूसरी तरफ शत्रुघ्नसिंह और उनके पचीस आदमी भी मारे जायेंगे। इतना तो हिसाब से होगा, उसके बाद जैसा बताओं, वैसा किया जाये।''12 इस प्रकार ही आज हमारी व्यवस्था चल रही है। ऐसे ही नहीं राजनीति को आज अत्याधुनिक और खतरनाक हथियार बना दिया। नेतागण अपने चुनाव के लिए चंदा लेने की तरीका आज दिन-ब-दिन बढ़ रहे है। एक तरह से गुंडागर्दी कह सकते है। इसका जीवंत चित्रण 'बिस्रामपुर का संत' उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि बम्बाई कलकत्ता के सेठों तक ही चुनाव-चंदे को सीमित नहीं रखते, वे विदेशी वाणिज्यव्यापार में लूट की संभावनाओं का अनुसंधान कर रहे है। वे स्मार्ट हैं। वे पार्टी को और खुद अपने को सरसब्ज कर रहे हैं। ध्रुव प्रदेशों और रेगिस्तानों तक से पैसा निचोडने की नयी प्राविधिकी का वे आविष्कार कर रहे हैं। एक-एक दाँव में करोड़ों डॉलर बटोरकर वे राजनीति को एक अत्याधुनिक और खतरनाक हथियार बना चुके हैं।"13

राजनैतिक नेता हो या कोई यूनियन की नेता हो समाज को लूटकर अपने जेब भरते है। ये संस्कृति बहुत पहले से आ रहा है। इसका जीवंत चित्रण 'पहला पड़ाव' उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल बड़े व्यंग्य के साथ प्रस्तुत किया है। यथा : मजदूर यूनियन की हालत देखिए। उसके नेताओं ने मुआवजे के बारे में काँस-काँस कर इतना सोचा और अपनी कल्पना की राइफल से जिसे बड़ी दूर का निशाना समझकर गोली चलाई, ....... उस होटल की अंतर्राष्ट्रीय श्रृंखला हथिया ली, इतने खराब रूपयों से उस आँचल कंपनी के अधिकांश शेयरों को अपने बीफकेस में डाल लिया। चारों ओर भले ही मेरी पहुँच के बाहर हो, रूपए की नदियों उफनाती हुई बह रही है। माना कि उनमें गंगा से भी लाख गुना ज्यादा प्रदूषण है पर उनका यह प्रदूषण ही हमारी सभ्यता का विभूषण है। कहीं दूर नहीं, यह सब सारे जहाँ से अच्छे अपने हिंदोस्तान में हो रहा है।''14 इसका एक नमूना राग दरबारी' उपन्यास में देख सकते हैं। राजनैतिक नेता योजनाओं के रूप में किसी पुराने चीजों को थोड़ा-सा साफ करके, किताबों में लिखते है कि ये चीज नया-नया बनाया। इसके सम्बंधी धन नेताओं के जेब में चले जाते है। इस प्रकार सरकारी धन लूट रहे है। इसका जीवंत चित्रण राग दरबारी' उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल समझाते है कि वास्तव में कुओं या तो वहाँ पहले ही से, पर उन्होंने उसका जीर्णोद्धार करके, जमाने के चलन के हिसाब से सरकारी कागजों से कूप-निर्माण का इन्दराज करा दिया था जो कि अच्छा अनुदान खींचने के लिए नैतिक तो नहीं, पर एक प्रकार की राजनीतिक कार्रवाई थी15

नेतागण वोट माँगते समय जाति के नाम पर अपना-पराया भेदभाव पैदा करवाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। लेकिन इस प्रकार के भेदभाव के कारण जनता के बीच झगड़े पैदा होकर आपस में एक दूसरे को मार रहे हैं। इस प्रकार अपने स्वार्थ के लिए राजनीतिक नेतागण पूरे समाज को भ्रष्ट कर रहे हैं। हिन्दू-मुस्लिम, शिव-वैष्णव, ब्राह्मण-शूद्र, अमीर-गरीब, धर्म और जातियों के आधार पर नेतागण चुनाव में जीत रहे हैं। इस प्रकार की कुरूतिया राग दरबारी' उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने प्रस्तुत किया है कि – ब्राह्मण उम्मीदवार ने सवर्णो के बीच ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त को कई बार पाठ किया और समझाया कि ब्राहमण ही पुरुष-ब्रह्म का मुंह है। उसने यह भी बताया कि शूद्र पुरुष-ब्रह्म का पैर है। प्रधान के पद के बारे में उसने कई उदाहरण देकर बताया कि उसका सम्बन्ध मेधा और वाणी से है जो पैर में नहीं होती, सिर में होती है, जिसमें मुंह भी होता है। अतः ब्राह्मण को स्वाभाविक रूप से प्रधान बनना चाहिए, न कि शूद को। ब्राह्मण उम्मीदवार ने शूद्रों का तिरस्कार करने केलिए। प्रचलित गाली-गलौज का सहारा नहीं लिया था, वह अपनी बात को इसी सास्कृतिक स्तर पर समझाता रहा। उसने रिआयत के तौर पर यह भी मान लिया कि कोई दौड़-धूप का ऐसा काम, जिसमें पैरों की आवश्यकता हो - जैसे न्याय-पंचायत के चपरासी का काम निश्चित रूप से शूद्र को ही मिलना चाहिए, पर प्रधान के पद के लिए शूद्र का खड़ा होना वेद-विपरीत बात होगी।....... बताओ ठाकुर किसनसिंह, क्या अब तुम उस....। उस के बाद कुछ गॉलियाँ, बाद में वाक्य का दूसरा अंश......... को ही वोट दोगे?''16 चुनाव में जीतने के बाद अपने पद की मर्यादा के लिए गाँधी के सिद्धांतों को लेकर बात करते हैं। इसका चित्रण राग दरबारी उपन्यास में वैद्यजी के माध्यम से श्रीलाल शुक्ल प्रस्तुत करता है कि – वैद्यजी ने गम्भीरता से कहा, पद की मर्यादा रखनी चाहिए। प्रधानमंत्री बनाने के बाद गाँधी जी नेहरू जी का कितना सम्मान करते थे। पारस्परिक सम्बंध की बात दूसरी है, किन्तु लोक-व्यवहार में पद की मर्यादा रखनी चाहिए17 इस प्रकार राजनीतिक नेतागण अपनी इच्छा से व्यवहार कर देश के विकास में बाधक बन रहे हैं। अपने घर भरने के लिए न केवल व्यक्ति, पूरे समाज को लूट रहे है।

हमारे देश के सरकार गाँवों के विकास के लिए जो सहायता ग्रामीण जनता को दी गई है, उसका सदुपयोग नहीं हो रहा है। गाँव के लिए मंजूर हुई सहकारी आंदोलन का पूरा लाभ राजनैतिक नेता उठा रहे हैं। आजकल राजनैतिक नेता सहकारी फार्म बनाकर, मुर्गी पालकर, वनमहोत्सव या सामुदायिक मिलन केंद्र आदि खोलकर सरकारी सहायता लूट रहे हैं। आज के सरकारी ग्राण्ट साधारण जनता तक नहीं पहुंच रहे हैं। पूरे समाज भ्रष्टाचार के कुचक्र में बुरी तरह से फँस गया हैं। श्रीलाल शुक्ल अपने उपन्यासों में इसका चित्रण बडी व्यंग्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। राग दरबारी' उपन्यास में कालिका प्रसाद का पेशा सरकारी ग्राण्ट और कर्जे खाना था। इसका चित्रण इस प्रकार है कि - "उनका पूरा कर्मयोग सरकारी स्कीमों की फिलासफी पर टिका था। मुर्गीपालन के लिए ग्राण्ट मिलने का नियम बना तो उन्होंने मुर्गियाँ पालने का ऐलान कर दिया। एक दिन उन्होंने कहा कि जाति-पांति बिल्कुल बेकार की चीज है और हम बाँभन और चमार एक है। यह उन्होंने इसीलिए कहा कि चमडा कमाने की ग्राण्ट मिलनेवाली थी। चमार देखते ही रह गये और उन्होंने चमड़ा कमाने की गाण्ट लेकर अपने चमड़े का ज्यादा चिकना बनाने में खर्च भी कर डाली। खाद के गड्ढे को पक्का करने के लिए घर में बिना धुएँ का चूल्हा लगवाने के लिए नये ढंग का संडास बनवाने के लिए - कालिका प्रसाद ने ये सब ग्राण्टे ली और इनके एवज में कारगुजारी की जैसी रिपोर्ट उनसे माँगी गयी वैसी रिपोर्ट उन्होंने बिना किसी हिचक के लिखकर दे दी।''18 यही नहीं कॉलिज के लिए भी खेल-कूद सम्बंधी ग्राण्ट माँगते है। वन-महोत्सव में पेड़ लगाने में भी सरकारी ग्राण्ट को लूट रहे हैं। राजनैतिक नेतागण देश को आगे बढ़ाने के अलावा पतनोन्मुख दिशा की ओर ले जा रहे है। इस प्रकार देश की स्थिति ऐसे ही रहने से आगे बढ़ाने में तकलीफ पहुँचते हैं। सरकारी ग्राण्ट पाने केलिए किस प्रकार तड़प रहे हैं, ‘राग दरबारी' उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल बड़े मार्मिक व्यंग्य के साथ प्रस्तुत किया है कि – हर साल गाँव में वनमहोत्सव का जलसा होता था, जिसका अर्थ जंगल में पिकनिक करना नहीं बल्कि बंजर में पेड़ लगाना है और तब कभी-कभी तहसीलदार साहब, और लाजमी तौर से बी.डी.ओ साहब, गाजे-बाजे के साथ, उस पर पेड़ लगाने जाते थे। इस जमीन को कालिज की सम्पत्ति बनाकर इण्टरमीडिएट में कृषि-विज्ञान की कक्षाएँ खोली गयी थीं। इसी को अपना खेलकूद का मैदान बताकर गाँव के नवयुवक, युवक-मंगल दल के नाम पर, हर साल खेलकूद सम्बन्धी ग्राण्ट ले आया करते थे। इसी जमीन को सनीचर ने अपने कर्मक्षेत्र के लिए चुना।"19 इस प्रकार की स्थिति में सरकारी व्यवस्था सहकारी फार्म किस प्रकार आगे बढ़ रहे हैं, जिसका जीवंत चित्रण 'बिस्रामपुर का संत' उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है कि - "........सहकारी फार्म अब एक उजाड़ बंजर भर है, बीहड़ में बदल रहा है। इसके कई सदस्य इस्तीफा देकर बाहर चले गये है। वे शहर में ईंटगारा ढो रहे हैं, रिक्शा चला रहे हैं। फार्म की जमीन पर झाड़ियाँ उग आयी हैं, नदी की तरफ भरके निकल रहे हैं। फार्म की समिति के पास यह साधन नहीं है कि नीचे की तरफ बंधा बनवाये, पानी का इंतजाम करे, सारी जमीन को ट्रैक्टर से जुताया जाए और खाद देकर उसमें खेती करायी जाए। अब इसका उद्धार इसी में है कि सरकार अपनी एक नयी योजना में इसे लेकर कुछ साल खुद उन्नत ढंग की खेती कराये। इस योजना का नाम बीहड़-सुधार-योजना है। वे बुलडोजर चलाकर जमीन को हमवार करेंगे, कटान रोकने के लिए नदी की तरफ बाँध बनाएँगे, उस पर घनी घास और झाड़ियाँ उगाऐंगे, सिंचाई का इंतजाम करेंगे और जब जमीन पर दो-तीन फसलें कट चुकेंगी तब भूदान समिति के प्रस्ताव के अनुसार उसे आप लोगों को अपनी-अपनी निजी खेती के लिए बाँट देंगे। इस वक्त जो हालत है, उसमें अपने आप कोई बदलाव नहीं आएगा। मुर्दा छोडे को चाहे जितने कोडे मारो, वह चल थोडे ही पाएगा।''20 इस प्रकार सरकारी ग्राण्ट आजकल के नेतागण के हाथ में आ रहे है। इसका स्पष्ट उदाहरण आजकल के समाज ही है।

निष्कर्ष :

जनता के प्रतिनिधित्व के रूप में संविधान में बैठे नेतागण देश के विकास में अग्रसर होना है। लेकिन अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए नेतागण जी रहे है। स्वार्थ के कारण समाज के प्रति अपने दायित्व भूल रहे है। चुनाव जीतने केलिए क्या क्या कर रहे है, जिसका जीवंत चित्रण श्रीलालशुक्ल के उपन्यासों में चित्रित किया है।  गाँव की राजनैतिक जिंदगी, नेतागण वोट माँगते समय जाति के नाम पर अपना-पराया भेदभाव पैदा करवाना, किसानों के प्रति सहानुभूति बातें... उनके भलाई के अलावा शोषण, चुनाव के लिए चंदा लेने की तरीका, गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार कुचक्र में बुरी तरह से फँस गया हैं। श्रीलाल शुक्ल अपने उपन्यासों में इसका चित्रण बडी व्यंग्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। 

संदर्भ सूची :

1. आँचलिक उपन्यास : सम्वेदना और शिल्पडॉ. ज्ञानचंद्र गुप्त – पृ. 74
2. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 6
3. बिस्रामपुर का संत – श्रीलालशुक्ल – पृ. 6
4. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 15
5. बिस्रामपुर का संत – श्रीलालशुक्ल – पृ. 10
6. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 198
7. पहला पड़ाव - श्रीलालशुक्ल – पृ. 167
8. पहला पड़ाव - श्रीलालशुक्ल – पृ. 133
9. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 57
10. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 143
11. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 140
12. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 202
13. बिस्रामपुर का संत – श्रीलालशुक्ल – पृ. 86
14. पहला पड़ाव - श्रीलालशुक्ल – पृ. 193
15. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 198
16. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 204
17. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 275
18. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 146
19. रागदरबारी – श्रीलालशुक्ल – पृ. 147
20. बिस्रामपुर का संत – श्रीलालशुक्ल – पृ. 136