शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

कारतूस | हबीब तनवीर | कक्षा – दसवीं | स्पर्श (भाग-२) | एकांकी | kartoos | habib tanveer | cbse | hindi | class 10

कारतूस - हबीब तनवीर

(1923-2009)

1923 में छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर ने 1944 में नागपुर से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात ब्रिटेन की नाटक अकादमी से नाट्य-लेखन का अध्ययन करने गए और फिर दिल्ली लौटकर पेशेवर नाट्यमंच की स्थापना की।

नाटककार, कवि, पत्रकार, नाट्य निर्देशक, अभिनेता जैसे कई रूपों में ख्याति प्राप्त हबीब तनवीर ने लोकनाट्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया। कई पुरस्कारों, फेलोशिप और पद्मश्री से सम्मानित हबीब तनवीर के प्रमुख नाटक हैं-आगरा बाज़ार, चरनदास चोर, देख रहे हैं नैन, हिरमा की अमर कहानी। इन्होंने बसंत ऋतु का सपना, शाजापुर की शांति बाई, मिट्टी की गाड़ी और मुद्राराक्षस नाटकों का आधुनिक रूपांतर भी किया।

*******

अंग्रेज़ इस देश में व्यापारी के भेष में आए थे। शुरू में व्यापार ही करते रहे, लेकिन उनके इरादे केवल व्यापार करने के नहीं थे। धीरे-धीरे उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी ने रियासतों पर कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया। उनकी नीयत उजागर होते ही अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान से खदेड़ने के प्रयास भी शुरू हो गए।

प्रस्तुत पाठ में एक ऐसे ही जाँबाज़ के कारनामों का वर्णन है जिसका एकमात्र लक्ष्य था अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर करना। कंपनी के हुक्मरानों की नींद हराम कर देने वाला यह दिलेर इतना निडर था कि शेर की माँद में पहुँचकर उससे दो-दो हाथ करने की मानिंद कंपनी की बटालियन के खेमे में ही नहीं आ पहुँचा. बल्कि उनके कर्नल पर ऐसा रौब गालिब किया कि उसके मुँह से भी वे शब्द निकले जो किसी शत्रु या अपराधी के लिए तो नहीं ही बोले जा सकते थे।

********

कारतूस

पात्र - कर्नल, लेफ़्टीनेंट, सिपाही, सवार

अवधि - 5 मिनट

ज़माना - सन् 1799

समय - रात्रि का

स्थान - गोरखपुर के जंगल में कर्नल कालिंज के खेमे का अंदरूनी हिस्सा।

(दो अंग्रेज़ बैठे बातें कर रहे हैं, कर्नल कालिंज और एक लेफ़्टीनेंट खेमे के बाहर हैं, चाँदनी छिटकी हुई है, अंदर लैंप जल रहा है।)

कर्नल - जंगल की जिंदगी बड़ी खतरनाक होती है।

लेफ्टीनेंट - हफ़्तों हो गए यहाँ खेमा डाले हुए। सिपाही भी तंग आ गए हैं। ये वज़ीर अली आदमी

है या भूत, हाथ ही नहीं लगता।

कर्नल - उसके अफ़साने सुन के रॉबिनहुड के कारनामे याद आ जाते हैं। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ उसके दिल में किस कदर नफ़रत है। कोई पाँच महीने हुकूमत की होगी। मगर इस पाँच महीने में वो अवध के दरबार को अंग्रेज़ी असर से बिलकुल पाक कर देने में तकरीबन कामयाब हो गया था।

लेफ़्टीनेंट - कर्नल कालिंज ये सआदत अली कौन है?

कर्नल - आसिफ़उद्दौला का भाई है। वज़ीर अली का और उसका दुश्मन। असल में नवाब आसिफ़उद्दौला के यहाँ लड़के की कोई उम्मीद नहीं थी। वज़ीर अली की पैदाइश को सआदत अली ने अपनी मौत खयाल किया।

लेफ़्टीनेंट - मगर सआदत अली को अवध के तख्त पर बिठाने में क्या मसलेहत थी?

कर्नल - सआदत अली हमारा दोस्त है और बहुत ऐश पसंद आदमी है इसलिए हमें अपनी आधी मुमलिकत (जायदाद, दौलत) दे दी और दस लाख रुपये नगद। अब वो भी मज़े करता है और हम भी।

लेफ्टीनेंट - सुना है ये वज़ीर अली अफ़गानिस्तान के बादशाह शाहे ज़मा को हिंदुस्तान पर हमला करने की दावत (आमंत्रण) दे रहा है।

कर्नल - अफ़गानिस्तान को हमले की दावत सबसे पहले असल में टीपू सुल्तान ने दी फिर वज़ीर अली ने भी उसे दिल्ली बुलाया और फिर शमसुद्दौला ने भी।

लेफ़्टीनेंट - कौन शमसुद्दौला ?

कर्नल - नवाब बंगाल का निस्बती (रिश्ते) भाई। बहुत ही खतरनाक आदमी है।

लेफ़्टीनेंट - इसका तो मतलब ये हुआ कि कंपनी के खिलाफ़ सारे हिंदुस्तान में एक लहर दौड़ गई है।

कर्नल - जी हाँ, और अगर ये कामयाब हो गई तो बक्सर और प्लासी के कारनामे धरे रह जाएँगे - और कंपनी जो कुछ लॉर्ड क्लाइव के हाथों हासिल कर चुकी है, लॉर्ड वेल्जली के हाथों सब खो बैठेगी।

लेफ़्टीनेंट - वज़ीर अली की आज़ादी बहुत खतरनाक है। हमें किसी न किसी तरह इस शख्स को गिरफ्तार कर ही लेना चाहिए।

कर्नल - पूरी एक फ़ौज लिए उसका पीछा कर रहा हूँ और बरसों से वो हमारी आँखों में धूल झोंक रहा है और इन्हीं जंगलों में फिर रहा है और हाथ नहीं आता। उसके साथ चंद जाँबाज़ हैं। मुट्ठी भर आदमी मगर ये दमखम है।

लेफ़्टीनेंट - सुना है वज़ीर अली जाती तौर से भी बहुत बहादुर आदमी है।

कर्नल - बहादुर न होता तो यूँ कंपनी के वकील को कत्ल कर देता?

लेफ़्टीनेंट - ये कत्ल का क्या किस्सा हुआ था कर्नल?

कर्नल - किस्सा क्या हुआ था उसको उसके पद से हटाने के बाद हमने वज़ीर अली को बनारस पहुँचा दिया और तीन लाख रुपया सालाना वजीफ़ा मुकर्रर कर दिया। कुछ महीने बाद गवर्नर जनरल ने उसे कलकत्ता (कोलकाता) तलब किया। वज़ीर अली कंपनी के वकील के पास गया जो बनारस में रहता था और उससे शिकायत की कि गवर्नर जनरल उसे कलकत्ता में क्यूँ तलब करता है। वकील ने शिकायत की परवाह नहीं की उलटा उसे बुरा-भला सुना दिया। वज़ीर अली के तो दिल में यूँ भी अंग्रेज़ों के खिलाफ़ नफ़रत कूट-कूटकर भरी है उसने खंजर से वकील का काम तमाम कर दिया।

लेफ़्टीनेंट - और भाग गया?

कर्नल - अपने जानिसारों समेत आज़मगढ़ की तरफ़ भाग गया। आज़मगढ़ के हुक्मरां ने उन लोगों को अपनी हिफ़ाज़त में घागरा तक पहुँचा दिया। अब ये कारवाँ इन जंगलों में कई साल से भटक रहा है।

लेफ़्टीनेंट - मगर वज़ीर अली की स्कीम क्या है?

कर्नल - स्कीम ये है कि किसी तरह नेपाल पहुँच जाए। अफ़गानी हमले का इंतेज़ार करे, अपनी ताकत बढ़ाए, सआदत अली को उसके पद से हटाकर खुद अवध पर कब्ज़ा करे और अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान से निकाल दे।

लेफ़्टीनेंट - नेपाल पहुँचना तो कोई ऐसा मुश्किल नहीं, मुमकिन है कि पहुँच गया हो।



कर्नल - हमारी फ़ौजें और नवाब सआदत अली खाँ के सिपाही बड़ी सख्ती से उसका पीछा - कर रहे हैं। हमें अच्छी तरह मालूम है कि वो इन्हीं जंगलों में है। (एक सिपाही तेज़ी से दाखिल होता है)

कर्नल - (उठकर) क्या बात है?

गोरा - दूर से गर्द उठती दिखाई दे रही है।

कर्नल - सिपाहियों से कह दो कि तैयार रहें (सिपाही सलाम करके चला जाता है)

लेफ़्टीनेंट - (जो खिड़की से बाहर देखने में मसरूफ़ था) गर्द तो ऐसी उड़ रही है जैसे कि पूरा एक काफ़िला चला आ रहा हो मगर मुझे तो एक ही सवार नज़र आता है।

कर्नल - (खिड़की के पास जाकर) हाँ एक ही सवार है। सरपट घोड़ा दौड़ाए चला आ रहा है।

लेफ़्टीनेंट – और सीधा हमारी तरफ़ आता मालूम होता है (कर्नल ताली बजाकर सिपाही को बुलाता है)

कर्नल - (सिपाही से) सिपाहियों से कहो, इस सवार पर नज़र रखें कि ये किस तरफ जा रहा - है (सिपाही सलाम करके चला जाता है)

लेफ्टीनेंट - शुब्हे की तो कोई गुंजाइश ही नहीं तेज़ी से इसी तरफ़ आ रहा है (टापों की आवाज़ बहुत करीब आकर रुक जाती है)

सवार - (बाहर से) मुझे कर्नल से मिलना है। -

गोरा - (चिल्लाकर) बहुत खूब।

सवार - (बाहर से) सी।

गौरा (अंदर आकर ) हुजूर सवार आपसे मिलना चाहता है।

कर्नल - भेज दो।

लेफ्टीनेंट - वज़ीर अली का कोई आदमी होगा हमसे मिलकर उसे गिरफ़्तार करवाना चाहता होगा। कर्नल खामोश रहो (सवार सिपाही के साथ अंदर आता है)

सवार - (आते ही पुकार उठता है) तन्हाई! तन्हाई! 1

कर्नल - साहब यहाँ कोई गैर आदमी नहीं है आप राजेदिल कह दें।

सवार - दीवार हमगोश दारद, तन्हाई।

(कर्नल, लेफ़्टीनेंट और सिपाही को इशारा करता है। दोनों बाहर चले जाते हैं। जब कर्नल और सवार खेमे में तन्हा रह जाते हैं तो ज़रा वक्फ़े के बाद चारों तरफ़ देखकर सवार कहता है)

सवार - आपने इस मुकाम पर क्यों खेमा डाला है?

कर्नल - कंपनी का हुक्म है कि वज़ीर अली को गिरफ़्तार किया जाए।

सवार - लेकिन इतना लावलश्कर क्या मायने?

कर्नल - गिरफ़्तारी में मदद देने के लिए।

सवार - वज़ीर अली की गिरफ़्तारी बहुत मुश्किल है साहब ।

कर्नल - क्यों?

सवार - वो एक जाँबाज़ सिपाही है।

कर्नल - मैंने भी यह सुन रखा है। आप क्या चाहते हैं?

सवार - चंद कारतूस।

कर्नल - किसलिए?

सवार - वज़ीर अली को गिरफ्तार करने के लिए।

कर्नल - ये लो दस कारतूस

सवार - (मुसकराते हुए) शुक्रिया।

कर्नल - आपका नाम? -

सवार - वज़ीर अली। आपने मुझे कारतूस दिए इसलिए आपकी जान बख्शी करता हूँ। (ये कहकर बाहर चला जाता है, टापों का शोर सुनाई देता है। कर्नल एक सन्नाटे में है। हक्का-बक्का खड़ा है कि लेफ़्टीनेंट अंदर आता है)

लेफ़्टीनेंट - कौन था?

कर्नल - (दबी ज़बान से अपने आप से कहता है) एक जाँबाज़ सिपाही।

पतझर में टूटी पत्तियाँ | रवींद्र केलेकर | गिन्नी का सोना | झेन की देन | pathjhad mein tooti patiya | ravindra kelekar | lesson plan | cbse | hindi | class 10

पतझर में टूटी पत्तियाँ - रवींद्र केलेकर

(1925 -2010)

7 मार्च 1925 को कोंकण क्षेत्र में रवींद्र केलेकर छात्र जीवन से ही गोवा मुक्ति आंदोलन में शामिल हो गए थे। गांधीवादी चिंतक के रूप में विख्यात केलेकर ने अपने लेखन में जन-जीवन के विविध पक्षों, मान्यताओं और व्यक्तिगत विचारों को देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। इनकी अनुभवजन्य टिप्पणियों में अपने चिंतन की मौलिकता के साथ ही मानवीय सत्य तक पहुँचने की सहज चेष्टा रहती है।

कोंकणी और मराठी के शीर्षस्थ लेखक और पत्रकार रवींद्र केलेकर की कोंकणी में पच्चीस, मराठी में तीन, हिंदी और गुजराती में भी कुछेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। केलेकर ने काका कालेलकर की अनेक पुस्तकों का संपादन और अनुवाद भी किया है।

गोवा कला अकादमी के साहित्य पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित केलेकर की प्रमुख कृतियाँ हैं- कोंकणी में उजवाढाचे सूर, समिधा, सांगली, ओथांबे; मराठी में कोंकणीचें राजकरण, जापान जसा दिसला और हिंदी में पतझर में टूटी पत्तियाँ।

******

प्रस्तुत पाठ के प्रसंग पढ़ने वालों से थोड़ा कहा बहुत समझना की माँग करते हैं। ये प्रसंग महज पढ़ने-गुनने की नहीं, एक जागरूक और सक्रिय नागरिक बनने की प्रेरणा भी देते हैं। पहला प्रसंग गिन्नी का सोना जीवन में अपने लिए सुख-साधन जुटाने वालों से नहीं बल्कि उन लोगों से परिचित कराता है जो इस जगत को जीने और रहने योग्य बनाए हुए हैं।

दूसरा प्रसंग झेन की देन बौद्ध दर्शन में वर्णित ध्यान की उस पद्धति की याद दिलाता है जिसके कारण जापान के लोग आज भी अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच कुछ चैन भरे पल पा जाते हैं।

*******

पतझर में टूटी पत्तियाँ (I) गिन्नी का सोना

शुद्ध सोना अलग है और गिन्नी का सोना अलग। गिन्नी के सोने में 1-सा ताँबा मिलाया हुआ होता है, इसलिए वह ज्यादा चमकता है और शुद्ध सोने से मजबूत होता है। औरतें अकसर इसी सोने के गहने बनवा लेती हैं।

फिर भी होता तो वह है गिन्नी का ही सोना ।

शुद्ध आदर्श भी शुद्ध सोने के जैसे ही होते हैं। चंद लोग उनमें व्यावहारिकता का थोड़ा-सा ताँबा मिला देते हैं और चलाकर दिखाते हैं। तब हम लोग उन्हें प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट' कहकर उनका बखान करते हैं।

पर बात न भूलें कि बखान आदर्शों का नहीं होता, बल्कि व्यावहारिकता का होता है। और जब व्यावहारिकता का बखान होने लगता है तब 'प्रैक्टिकल आइडियालिस्टों' के जीवन से आदर्श धीरे-धीरे पीछे हटने लगते हैं और उनकी व्यावहारिक सूझबूझ ही आगे आने लगती है। सोना पीछे रहकर ताँबा ही आगे आता है।

चंद लोग कहते हैं. गांधीजी 'प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट' थे। व्यावहारिकता को पहचानते थे। उसकी कीमत जानते थे। इसीलिए वे अपने विलक्षण आदर्श चला सके। वरना हवा में ही उड़ते रहते। देश उनके पीछे न जाता।

व्यवहारवादी लोग हमेशा सजग रहते हैं। लाभ-हानि का हिसाब लगाकर ही कदम उठाते हैं। वे जीवन में सफल होते हैं, अन्यों से आगे भी जाते हैं पर क्या वे ऊपर चढ़ते हैं। खुद ऊपर चढ़ें और अपने साथ दूसरों को भी ऊपर ले चलें, यही महत्त्व की बात है। यह काम तो हमेशा आदर्शवादी लोगों ने ही किया है। समाज के पास अगर शाश्वत मूल्यों जैसा कुछ है तो वह आदर्शवादी लोगों का ही दिया हुआ है। व्यवहारवादी लोगों ने तो समाज को गिराया ही है।

पतझर में टूटी पत्तियाँ (II) झेन की देन

जापान में मैंने अपने एक मित्र से पूछा, “यहाँ के लोगों को कौन-सी बीमारियाँ अधिक होती हैं?" “मानसिक", उन्होंने जवाब दिया, “यहाँ के अस्सी फ़ीसदी लोग मनोरुग्ण हैं।"

“इसकी क्या वजह है?"

कहने लगे, "हमारे जीवन की रफ़्तार बढ़ गई है। यहाँ कोई चलता नहीं, बल्कि दौड़ता है। कोई बोलता नहीं, बकता है। हम जब अकेले पड़ते हैं तब अपने आपसे लगातार बड़बड़ाते रहते हैं।

...अमेरिका से हम प्रतिस्पर्धा करने लगे। एक महीने में पूरा होने वाला काम एक दिन में ही पूरा करने की कोशिश करने लगे। वैसे भी दिमाग की रफ़्तार हमेशा तेज़ ही रहती है। उसे 'स्पीड' का इंजन लगाने पर वह हज़ार गुना अधिक रफ़्तार दौड़ने लगता है। फिर एक क्षण ऐसा आता है जब दिमाग का तनाव बढ़ जाता है और पूरा इंजन टूट जाता है। ...यही कारण है जिससे मानसिक रोग यहाँ बढ़ गए हैं।...'

शाम को वह मुझे एक 'टी-सेरेमनी' में ले गए। चाय पीने की यह एक विधि है। जापानी में उसे चा-नो-यू कहते हैं।

वह एक छः मंजिली इमारत थी जिसकी छत पर दफ़्ती की दीवारोंवाली और तातामी (चटाई) की ज़मीनवाली एक सुंदर पर्णकुटी थी। बाहर बेढब-सा एक मिट्टी का बरतन था। उसमें पानी भरा हुआ था। हमने अपने हाथ-पाँव इस पानी से धोए। तौलिए से पोंछे और अंदर गए। अंदर 'चाजीन' बैठा था। हमें देखकर वह खड़ा हुआ। कमर झुकाकर उसने हमें प्रणाम किया। दो...झो... (आइए, तशरीफ़ लाइए) कहकर स्वागत किया। बैठने की जगह हमें दिखाई। अँगीठी सुलगाई। उस पर चायदानी रखी। बगल के कमरे में जाकर कुछ बरतन ले आया। तौलिए से बरतन साफ़ किए। सभी क्रियाएँ इतनी गरिमापूर्ण ढंग से कीं कि उसकी हर भंगिमा से लगता था मानो जयजयवंती के सुर गूँज रहे हों। वहाँ का वातावरण इतना शांत था कि चायदानी के पानी का खदबदाना भी सुनाई दे रहा था।

चाय तैयार हुई। उसने वह प्यालों में भरी। फिर वे प्याले हमारे सामने रख दिए गए। वहाँ हम तीन मित्र ही थे। इस विधि में शांति मुख्य बात होती है। इसलिए वहाँ तीन से अधिक आदमियों को प्रवेश नहीं दिया जाता। प्याले में दो घूँट से अधिक चाय नहीं थी। हम ओठों से प्याला लगाकर एक-एक बूँद चाय पीते रहे। करीब डेढ़ घंटे तक चुसकियों का यह सिलसिला चलता रहा। पहले दस-पंद्रह मिनट तो मैं उलझन में पड़ा। फिर देखा, दिमाग की रफ़्तार धीरे-धीरे धीमी पड़ती जा रही है। थोड़ी देर में बिलकुल बंद भी हो गई। मुझे लगा, मानो अनंतकाल में मैं जी रहा हूँ। यहाँ तक कि सन्नाटा भी मुझे सुनाई देने लगा।

अकसर हम या तो गुज़रे हुए दिनों की खट्टी-मीठी यादों में उलझे रहते हैं या भविष्य के रंगीन सपने देखते रहते हैं। हम या तो भूतकाल में रहते हैं या भविष्यकाल में। असल में दोनों काल मिथ्या हैं। एक चला गया है, दूसरा आया नहीं है। हमारे सामने जो वर्तमान क्षण है, वही सत्य है। उसी में जीना चाहिए। चाय पीते-पीते उस दिन मेरे दिमाग से भूत और भविष्य दोनों काल उड़ गए थे। केवल वर्तमान क्षण सामने था। और वह अनंतकाल जितना विस्तृत था।

जीना किसे कहते हैं, उस दिन मालूम हुआ। झेन परंपरा की यह बड़ी देन मिली है जापानियों को!