शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

THE MOUNTAIN MAN | मांझी | दशरद मांझी | नाटक | SCHOOL SCRIPT | फिल्म | MOTIVATION | DIRE TO DREAM

THE MOUNTAIN MAN | मांझी | दशरद मांझी | नाटक | SCHOOL SCRIPT | फिल्म | MOTIVATION | DIRE TO DREAM 

फिल्म: मांझी द माउंटेन मैन | अभिनीत: नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे | निर्देशक: केतन मेहता | 21 अगस्त 2015

मांझी द माउंटेन मैन

1min Story review………..

यह फिल्म है बिहार के दशरथ मांझी की, जिन्होंने अकेले दम पर  22 सालों की कड़ी मेहनत से सिर्फ़ हथोड़े और छैनी की मदद से एक बड़ा पहाड़ काटकर रास्ता बना लिया और लगभग 70 किलोमीटर(km) की लंबी दूरी को सिर्फ एक किलोमीटर में समेट दिया। यह फिल्म पटना के गहलोरे गांव के दशरथ मांझी के वास्तविक जीवन पर आधारित है। यह फिल्म दशरथ मांझीके जूनून, प्रयास, कभी न हार मानने वाली ज़िद्द और आखिर में सफल होने की कहानी है। हालाँकि यह पूरी फिल्म बहुत ही प्रेरणादायक है जिसे देखने के बाद आप पूरी तरह मोटिवेशन से भर जाते हैं।

SCENE-1

(परदा खोलने के बाद.... एक मेला जैसा जन..... मुखिया के dress पर तीन या पाँच लोग /background music) तीन या पाँच लोग बैठकर बात कर रहे है......)

सब बराबर... सब बराबर..... सब बराबर... सब बराबर......। (नाचते..नाचते मेला आ रहे है)

सरकार ने कानून बना दिया है। सब बराबर.. सब बराबर.....। (नाचते..नाचते मेला आ रहे है)

दशरथ - यह सच्च है....... सब बराबर.....

(मेला GROUP) पात्र-1 अखबार में छपा है....... सब बराबर... सब बराबर.......।

(मुखिया GROUP) पात्र-2 गलती हो गयी यार....सरकार ने खास बात खतम कर रही है.....गिरिजनवासी और जमींदारी खतम....सब बराबर कह रहे है....

(मुखिया GROUP) पात्र-3 छोडिये मुखिया जी कानून कौन लागू करेगा.... (उसी समय दशरथ वहाँ पहुँचता है)

दशरथ - Good morning मुखिया जी कैसे है आप....आप बिलकुल बदले ही नही। अभी वही चमक...(गले लगाते है) (जोशभरी आवाज background music)

मुखिया - बहुवा माँफ करना पहचाना ही नही....

दशरथहमे दशरथ मबुल माथे की बेटा....

मुखिया हर चल...तूम.....हा हा हर चल..... (Music……)

दशरथ सबको सरकार बराबर कर दिया कि किसी को भी छू सकते है.....

(मुखिया GROUP) पात्र 1अरे दशरथ.....कौन सा बराबर......

(मुखिया GROUP) पात्र 2अरे न लायक.....कौन सा बराबर......

मुखिया सरकार बोलने पर माथे पर बैठेगा......(नाराज से background music) इतनी तुड़ाई करो कि जीवन भर अपनी जात की औकात न भूलें।.... (दशरथ को मारते है)

(दशरथ मार खाकर भाग जाता है.......)

SCENE-2

(दशरथ वहाँ से घर जाता है.....)

दशरथ - हाय... ये तो मेरी फगुनिया (बीबी) है? कैसे हो...तुम्हारे लिए ताजमहल लाया हूँ...

बीबी - इतनी छोटी....

दशरथ - हाह...हाह... यह तो हमारे पहाड़ जैसा बड़ा है। अच्छा एक बात बता दूँ.... हम शहर जायेंगे और कुछ काम कर खुश से रहेंगे।

बीबी - हम जानते हैं....खुश से रहेंगे।

दशरथ खूब कमायेंगे खुश से रहेंगे....

बीबी अभी मेरे लिए काम है....पहाड चढकर पानी लाना है.....

दशरथ चलो मैं भी तुम्हारे साथ आऊँगा।

बीबी न बाबा, तुम अपने काम देख लो।...(Music……)

(बीबी पहाड छडती है.......)

बीबी – (मन मे सोचती थी कि शहर में खुशी से रहेंगे....सब जगह घूमेंगे...नाचेंगे...

(उसी समय...पहाड से नीचे गिर जाती....) 

पात्र-1दशरथ तुम्हारी बीबी पहाड से गिर गई......

दशरथ हे भगवान.... क्या हो गया...

(music…. डाक्टर के पास ले जाते है......) (Time need here…)

डाक्टर बच्चा तो जिंदा है लेकिन.............

दशरथ – (रोता....रोता....कहता है......) पहाड की वजह से ही... पहाड की वजह से ही... फगुनिया.. मैं वादा करता हूँ...तुम्हारी हालत गाँव के किसी के साथ न होने दूँगा।... मैं पहाड को तोडकर रास्ता बनाऊँगा.....बहुत अकड़ है तोहरा में, देख कैसे उखाड़ते हैं अकड़ तेरी”.......

SCENE-3

(Background ब़डा पहाड... Stage पर कागज से बना पहाड......)

30sec.. Music……

उसी समय पत्थर तोडता दशरथ (dress मजदूरों की/ हवा चलने की आवाज background music)........

पात्र-1 – अरी चल दिया पहाड तोडे...अरे दो साल हो गया एक ही लोग आया मदद करे...एक दिन मरते रहना पहाड में....तो बनते रहना पहाड तुडवय्या...

(उसी समय पहाड के पास आकर खुद पहाड को देखकर दशरथ कहता है......)

दशरथ – हे फिर आ गये...सब राज्य कुषे...हाँ...आपको क्या लगता था, हम नही लौटेंगे.....जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं, बहुतै बड़ा दंगल चलेगा रे तोहर हमारा.....तैयार है.... हाँ. हाँ. हाँ. हाँ...तैयार है। (music……)

दशरथ – हमके रूलाकर हँसते है...हँसहँसहँसहँसहँस (फिर तोडना शुरू करते है) (पत्थर तोडने जैसा background music)

दशरथ – ये कासे कास बना दिया...हमको...कुछ गुनानी नही चाहते...ये तो दिक्कत है हम... पेलों से गुस गये हमारी कोपडिया में......कभी भी कही से शुरू हो जाते है...चल पडा...आगे पीछे पीछे आगे...नाचते रहता.... (music…) सब याद है....सब याद है।

(उसी समय दो आदमी दशरथ को मजाक उडाते कहते है कि अकेला पहाड तोडेगा.... हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ...) और कब तक... (dress मजदूरों की/ आश्चर्य से आवाज background music)

दशरथ : लोग कहते हैं कि हम पागल हैं.... जिंदगी खराब कर रहा है जब तक.....है टूटेगा नहीं...मैं हरेगा नहीं..!

SCENE–3

(उसी समय पत्रकार वहाँ पहुँचते है...... Background music....)

दशरथ मांझी उनसे कहते हैं – तुम अपना अखबार क्यों नहीं शुरू करते?

तो वह पत्रकार कहता है - अपना अखबार शुरू करना बहुत मुश्किल काम है।

तो दशरथ मांझी कहते हैं - "पहाड़ तोड़ने से भी ज़्यादा मुश्किल है"? हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ........

(music…..पत्थर तोडने जैसा....रास्ता बन गया....)

पत्रकार - दशरथ मांझी आप सूपर मेन है... एक बात बताईये...असंभव कार्य संभव करने के बाद क्या कहना चाहेंगे आप....

(पत्रकार और पूरे गाँव वालों से दशरथ कहता है कि.....

दशरथ : क्या बतायेंगे भय्या

पत्रकार कुछ तो कहिये....

दशरथ: भगवान के भरोसे मत बैठिये, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो! हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ...............(दिल से हँसता है.... Story end..)

(दशरथ ने 22 सालों की कड़ी मेहनत से एक बड़ा पहाड़ काटकर रास्ता बना लिया और लगभग 70 किलोमीटर(km) की लंबी दूरी को सिर्फ एक किलोमीटर में समेट दिया। यह एक सजीव कहानी है। अभी भी आप उस रास्ता देख सकते है। आदमी चाहे तो असंभव कार्य भी संभव कर सकता है इसका एक उदाहरम दशरथ माँझी.....)

******धन्यवाद******

रविवार, 20 नवंबर 2022

टिकट- अलबम | TICKET ALBUM | सुंदरा रामस्वामी | तमिल से अनुवाद : सुमति अय्यर | CBSE | Class 6 Hindi Chapter 9

टिकट- अलबम

सुंदरा रामस्वामी 
(तमिल से अनुवाद : सुमति अय्यर)

अब राजप्पा को कोई नहीं पूछता। आजकल सब-के-सब नागराजन को घेरे रहते। 'नागराजन घमंडी हो गया है', राजप्पा सारे लड़कों में कहता फिरता। पर लड़के भला कहाँ उसकी बातों पर ध्यान देते! नागराजन के मामा जी ने सिंगापुर से एक अलबम भिजवाया था। वह लड़कों को दिखाया करता। सुबह पहली घंटी के बजने तक सभी लड़के नागराजन को घेरकर अलबम देखा करते। आधी छुट्टी के वक्त भी उसके आसपास लड़कों का जमघट लगा रहता। कई लोग टोलियों में उसके घर तक हो आए। नागराजन शांतिपूर्वक सभी को अपना अलबम दिखाता, पर किसी को हाथ नहीं लगाने देता। अलबम को गोद में रख लेता और एक-एक पन्ना पलटता, लड़के बस देखकर खुश होते। 
और तो और कक्षा की लड़कियाँ भी उस अलबम को देखने के लिए उत्सुक थीं। पार्वती लड़कियों की अगुवा बनी और अलबम माँगने आई। लड़कियों में वही तेज़-तर्रार मानी जाती थी। नागराजन ने कवर चढ़ाकर अलबम उसे दिया। शाम तक लड़कियाँ अलबम देखती रहीं फिर उसे वापस कर दिया।

अब राजप्पा के अलबम को कोई पूछने वाला नहीं था। वाकई उसकी शान अब घट गई थी। राजप्पा के अलबम की लड़कों में काफ़ी तारीफ़ रही थी। मधुमक्खी की तरह . उसने एक-एक करके टिकट जमा किए थे। उसे तो बस एक यही धुन सवार थी। सुबह आठ बजे वह घर से निकल पड़ता। टिकट जमा करने वाले सारे लड़कों के चक्कर लगाता। दो ऑस्ट्रेलिया के टिकटों के बदले एक फिनलैंड का टिकट लेता। दो पाकिस्तान के बदले एक रूस का। बस शाम, जैसे ही घर लौटता, बस्ता कोने में पटककर अम्मा से चबेना लेकर निकर की जेब में भर लेता और खड़े-खड़े कॉफ़ी पीकर निकल जाता। चार मील दूर अपने दोस्त के घर से कनाडा का टिकट लेने पगडंडियों में होकर भागता। स्कूल भर में उसका अलबम सबसे बड़ा था। सरपंच के लड़के ने उसके अलबम को पच्चीस रुपए में खरीदना चाहा था, पर राजप्पा नहीं माना। 'घमंडी कहीं का', राजप्पा बड़बड़ाया था। फिर उसने तीखा जवाब दिया था, “तुम्हारे घर में जो प्यारी बच्ची है न, उसे दे दो न तीस रुपए में।" सारे लड़के ठहाका मारकर हँस पड़े थे।

पर अब? कोई उसके अलबम की बात तक नहीं करता। और तो और अब सब उसके अलबम की तुलना नागराजन के अलबम से करने लगे हैं। सब कहते हैं राजप्पा का अलबम फिसड्डी है। ed

पर राजप्पा ने नागराजन के अलबम को देखने की इच्छा कभी नहीं प्रकट की। लेकिन जब दूसरे लड़के उसे देख रहे होते तो वह नीची आँखों से देख लेता। सचमुच नागराजन का अलबम बेहद प्यारा था। पर राजप्पा के पास जितने टिकट थे उतने नागराजन के अलबम में नहीं थे। पर खुद उसका अलबम ही कितना प्यारा था। उसे छू लेना ही कोई बड़ी बात थी। इस तरह का अलबम थोड़ी मिलेगा। अलबम के पहले पृष्ठ पर मोती जैसे अक्षरों में उसके मामा ने लिख भेजा था-
ए. एम. नागराजन
'इस अलबम को चुराने वाला बेशर्म है। ऊपर लिखे नाम को कभी देखा है? यह अलबम मेरा है। जब तक घास हरी है और कमल लाल, सूरज जब तक पूर्व से उगे और पश्चिम में छिपे, उस अनंत काल तक के लिए यह अलबम मेरा है, रहेगा।'
लड़कों ने इसे अपने अलबम में उतार लिया। लड़कियों ने झट कापियों और किताबों में टीप लिया।
तुम लोग यह नकल क्यों करते हो? नकलची कहीं के", राजप्पा ने लड़कों को घुड़की दी। सब चुप रहे पर कृष्णन से नहीं रहा गया।
“जा, जा। जलता है, ईर्ष्यालु कहीं का।"
“मैं काहे को जलूँ? जले तेरा खानदान। मेरा अलबम उसके अलबम से कहीं बड़ा है। " राजप्पा ने शान बघारी।
“अरे, उसके पास जो टिकटें हैं, वह हैं कहीं तेरे पास? सब क्यों? बस एक इंडोनेशिया का टिकट दिखा दो। अरे, पानी भरोगे, हाँ।" कृष्णन ने छेड़ा।
"ठीक है, दस रुपए की शर्त। मेरे वाले टिकट दिखा दो।"
"पर मेरे पास जो टिकट है, वह कहाँ है उसके पास?" राजप्पा ने फिर ललकारा। “उसके पास जो टिकट है वही दिखा दो।" कृष्णन भी कम नहीं था। “तुम्हारा अलबम कूड़ा है" कृष्णन चीखा, "हाँ, हाँ कूड़ा।" लड़के जैसे कोरस गाने लगे।

राजप्पा को लगा, अपने अलबम के बारे में बातें करना फ़ालतू है। उसने कितनी मेहनत और लगन से टिकट बटोरे हैं। सिंगापुर से आए इस एक पार्सल ने नागराजन को एक ही दिन में मशहूर कर दिया। पर दोनों में कितना अंतर है! ये लड़के क्या समझेंगे! राजप्पा मन-ही-मन कुढ़ रहा था। स्कूल जाना अब खलने लगा था और लड़कों के सामने जाने में शर्म आने लगी। आमतौर पर शनिवार और रविवार को टिकट की खोज में लगा रहता, परंतु अब घर- घुसा हो गया था। दिन में कई बार अलबम को पलटता रहता। रात को लेट जाता। सहसा जाने क्या सोचकर उठता, ट्रंक खोलकर अलबम निकालता और एक बार पूरा देख जाता। उसे अलबम से चिढ़ होने लगी थी। उसे लगा, अलबम वाकई कूड़ा हो गया है।

उस दिन शाम उसने जैसे तय कर लिया था, वह नागराजन के घर गया। अब कोई कितना अपमान सहे! नागराजन के हाथ अचानक एक अलबम लगा है, बस यही ना। वह क्या जाने टिकट कैसे जमा किए जाते हैं! एक-एक टिकट की क्या कीमत होती है, वह भला क्या समझे! सोचता होगा टिकट जितना बड़ा होगा, वह उतना ही कीमती होगा। या फिर सोचता होगा, बड़े देश का टिकट कीमती होगा। वह भला क्या समझे!

उसके पास जितने भी फ़ालतू टिकट हैं उन्हें टरका कर, उससे अच्छे टिकट झाड़ लेगा। कितनों को तो उसने यूँ ही उल्लू बनाया है। कितनी चालबाजी करनी पड़ती है। नागराजन भला किस खेत की मूली है?

राजप्पा नागराजन के घर पहुँचकर ऊपर गया। चूँकि वह अकसर आया-जाया करता था, सो किसी ने नहीं टोका। ऊपर पहुँचकर वह नागराजन की मेज़ के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गया। कुछ देर बाद नागराजन की बहन कामाक्षी ऊपर आई।

"भैया शहर गया है। अरे हाँ, तुमने भैया का अलबम देखा?" उसने पूछा।
"हूँ", राजप्पा को हाँ कहने में हेकड़ी हो रही थी।
"बहुत सुंदर अलबम है ना? सुना है स्कूल भर में किसी के भी पास इतना बड़ा अलबम नहीं है।"
"तुमसे किसने कहा?"
"भैया ने।"
वह कुढ़ गया।

"बड़े से क्या मतलब हुआ? आकार में बड़ा हुआ तो अलबम बड़ा हो गया?" उसकी चिडचिडाहट साफ़ थी।

कामाक्षी कुछ देर तक वहीं रही। फिर नीचे चली गई। राजप्पा मेज पर बिखरी किताबों को टटोलने लगा। अचानक उसका हाथ दराज के ताले से टकरा गया। उसने ताले को खींचकर देखा। बंद था, क्यों न उसे खोलकर देख लिया जाए। मेज पर से उसने चाबी ढूँढ़ निकाली।

सीढ़ियों के पास जाकर उसने एक बार झाँककर देखा। फिर जल्दी में दराज़ खोली। अलबम ऊपर ही रखा हुआ था। पहला पृष्ठ खोला। उन वाक्यों को उसने दोबारा पढ़ा। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। अलबम को झट कमीज़ के नीचे खोंस लिया और दराज़ बंद कर दिया। सीढ़ियाँ उतरकर घर की ओर भागा।

घर जाकर सीधा पुस्तक की अलमारी के पास गया और पीछे की ओर अलबम छिपा दिया। उसने बाहर आकर झाँका पूरा शरीर जैसे जलने लगा था। गला सूख रहा था और चेहरा तमतमाने लगा था।

रात आठ बजे अपू आया। हाथ-पाँव हिलाकर उसने पूरी बात कह सुनाई। “सुना तुमने, नागराजन का अलबम खो गया। हम दोनों शहर गए हुए थे। लौटकर देखा तो अलबम गायब!' "

राजप्पा चुप रहा। उसने अपू को किसी तरह टाला। उसके जाते ही उसने झट कमरे का दरवाजा भिड़ा लिया और अलमारी के पीछे से अलबम निकालकर देखा। उसे फिर छिपा दिया। डर था कहीं कोई देख न ले।
रात में खाना नहीं खाया। पेट जैसे भरा हुआ था। सारा घर चिंतित हो गया। उसका चेहरा भयानक हो गया था।
रात, उसने सोने की कोशिश की पर नींद नहीं आई। अलबम सिरहाने तकिए के नीचे रखकर सो गया।

सुबह अपू दोबारा आया। राजप्पा तब भी बिस्तर पर बैठा था। अपू सुबह नागराजन के घर होकर आया था। "कल तुम उसके घर गए थे?" अपू ने पूछा।
राजप्पा की साँस जैसे ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। फिर सिर हिला दिया। वह जिस तरह चाहे सोच ले ।

"कामाक्षी ने कहा था कि हमारे जाने के बाद खाली तुम वहाँ आए थे।"  अपू बोला। राजप्पा को समझते देर नहीं लगी कि अब सब उस पर शक करने लगे हैं। 

"कल रात से नागराजन लगातार रोए जा रहा है। उसके पापा शायद पुलिस को खबर दें।" अपू ने फिर कहा। 
राजप्पा फिर भी चुप रहा।

“उसके पापा डी.एस.पी. के दफ़्तर में ही तो काम करते हैं। बस वह पलक झपक दें और पुलिस की फ़ौज हाज़िर।" अपू जैसे आग में घी डाल रहा था। यह तो भला हुआ कि अपू का भाई उसे ढूँढ़ता हुआ आ गया और अपू चलता बना। राजप्पा के पापा दफ़्तर चले गए थे। बाहर का किवाड़ बंद था। राजप्पा अभी तक बिस्तर पर बैठा हुआ था। आधा घंटा गुज़र गया और वह उसी तरह बैठा रहा। 
तभी बाहर की साँकल खटकी।

'पुलिस', राजप्पा बुदबुदाया।

भीतर साँकल लगी थी। दरवाज़ा खटकने की आवाज़ तेज़ हो गई। राजप्पा ने तकिए के नीचे से अलबम उठाया और ऊपर भागा। अलमारी के पीछे छिपा दे? नहीं। पुलिस ने अगर तलाशी ली तो पकड़ा जाएगा। अलबम को कमीज़ के नीचे छिपाकर वह नीचे आ गया। बाहर का दरवाज़ा अब भी बज रहा था।

“कौन है? अरे दरवाज़ा क्यों नहीं खोलता?" अम्मा भीतर से चिल्लाई। थोड़ी देर और हुई तो अम्मा खुद ही उठकर चली आएँगी।

राजप्पा पिछवाड़े की ओर भागा। जल्दी से बाथरूम में घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। अम्मा ने अँगीठी पर गरम पानी की देगची चढ़ा रखी थी। उसने अलबम को अँगीठी में डाल दिया। अलबम जलने लगा। कितने प्यारे टिकट थे। राजप्पा की आँखों में आँसू आ गए। तभी अम्मा की आवाज़ आई, "जल्दी से आ तो नहाकर नागराजन तुझे ढूँढ़ता हुआ आया है।" राजप्पा ने निकर उतार दी और गीला तौलिया लपेटकर बाहर आ गया। कपड़े बदलकर वह ऊपर गया। नागराजन कुरसी पर बैठा हुआ था। उसे देखते ही बोला, “मेरा अलबम खो गया है यार।" उसका चेहरा उतरा हुआ था। काफ़ी रोकर आया था शायद ।।

"कहाँ रखा था तुमने?" राजप्पा ने पूछा।

" शायद दराज़ में। शहर से लौटा तो गायब।"

नागराजन की आँखों में आँसू आ गए। राजप्पा से चेहरा बचाकर उसने आँखें पोंछ लीं। “रो मत यार।" राजप्पा ने उसे पुचकारा। वह फफक-फफक कर रो दिया।

राजप्पा झट नीचे उतरकर गया। एक मिनट में वह ऊपर नागराजन के सामने था। उसके हाथ में उसका अपना अलबम था।

"लो यह रहा मेरा अलबम अब इसे तुम रख लो। ऐसे क्यों देख रहे हो। मजाक नहीं कर रहा। सच कहता हूँ, इसे अब तुम रख लो।”

'बहला रहे हो यार।"
नागराजन को जैसे यकीन नहीं आया।

"नहीं यार। सचमुच तुमको दे रहा हूँ। रख लो।”

राजप्पा भला अपना अलबम उसे दे दे! कैसा चमत्कार है! नागराजन को अब भी यकीन नहीं आ रहा था। पर राजप्पा अपनी बात बार-बार दोहरा रहा था। उसका गला भर आया था।

“ठीक है, मैं इसे रख लेता हूँ। पर तुम क्या करोगे?"

“मुझे नहीं चाहिए।"

“क्यों, तुम्हें एक भी टिकट नहीं चाहिए?" "नहीं।"

"पर तुम कैसे रहोगे बगैर किसी टिकट के?"

'रोता क्यों है यार!"

फूट-फूटकर रो दिया।

"ले. इस अलबम को तू ही रख ले। इतनी मेहनत की है तूने।" नागराजन बोला। “नहीं, तुम रख लो। लेकर चले जाओ। जाओ, चले जाओ यहाँ से।" वह चीखा और नागराजन की समझ में कुछ नहीं आया। वह अलबम लेकर नीचे उतर गया। कमीज से आँखें पोंछता हुआ राजप्पा भी नीचे उतर आया। दोनों साथ-साथ दरवाजे तक आए।

"बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं घर चलूँ?" नागराजन सीढ़ियाँ उतरने लगा।

"सुनो राजू", राजप्पा ने पुकारा। नागराजन ने उसे पलटकर देखा। "अलबम दे दो। मैं आज रात जी भरकर इसे देखना चाहता हूँ। कल सुबह तुम्हें दे जाऊँगा।"

"ठीक है।" नागराजन ने उसे अलबम लौटा दी और चला गया। राजप्पा ऊपर आया। उसने दरवाजा बंद कर लिया और अलबम को छाती से लगाकर फूट-फूटकर रो दिया।

सुंदरा रामस्वामी (तमिल से अनुवाद : सुमति अय्यर)

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2022

पार नज़र के | जयंत विष्णु नार्लीकर | मराठी से अनुवाद-रेखा देशपांडे | Paar Nazar Ke | HINDI | CBSE | CLASS 6 | CHAPTER 6 | बसंत | NCERT

पार नज़र के
जयंत विष्णु नार्लीकर 
(मराठी से अनुवाद-रेखा देशपांडे)


वह एक सुरंगनुमा रास्ता था। आम आदमी के लिए इस रास्ते से होते हुए जाने की मनाही थी...लेकिन छोटू ने एक दिन अपने पापा का सिक्योरिटी पास लिया और जा पहुँचा सुरंग में... फिर क्या हुआ?

"छोटू! कितनी बार कहा है तुमसे कि उस तरफ़ मत जाया करो!"

"फिर पापा क्यों जाते हैं उस तरफ़ रोज़-रोज़?" "पापा को काम पर जाना होता है।"

रोजाना यही वार्तालाप हुआ करता था छोटू की माँ और छोटू के बीच उस तरफ एक सुरंगनुमा रास्ता था और छोटू के पापा इसी सुरंग से होते हुए काम पर जाया करते थे। आम आदमी के लिए इस रास्ते से जाने की मनाही थी। चंद चुनिंदा लोग ही इस सुरंगनुमा रास्ते का इस्तेमाल कर सकते थे और छोटू के पापा इन्हीं चुनिंदा लोगों में से एक थे।

आज छुट्टी थी और छोटू के पापा घर ही पर आराम फ़रमा रहे थे। नजर बचाकर, चोरी-छिपे छोटू ने पापा का सिक्योरिटी पास हथिया ही लिया और चल दिया सुरंग की तरफ़।

वैसे तो उनकी पूरी कालोनी ही जमीन के नीचे बसी थी। यह जो सुरंगनुमा रास्ता था- अंदर दीये जल रहे थे और प्रवेश करने से पहले एक बंद दरवाजे का सामना करना पड़ता था। दरवाजे में एक खाँचा बना हुआ था। छोटू ने खाँचे में कार्ड डाला, तुरंत दरवाजा खुल गया। छोटू ने सुरंग में प्रवेश किया। अंदर वाले खाँचे में सिक्योरिटी पास आ पहुँचा था। उसे उठा लिया, कार्ड उठाते ही दरवाजा बंद हुआ। छोटू ने चारों तरफ़ नजर दौड़ाई। सुरंगनुमा वह रास्ता ऊपर की तरफ़ जाता था.... यानी ज़मीन के ऊपर का सफ़र कर आने का मौका मिल गया था। 

मगर कहाँ? मौका हाथ लगते ही फिसल गया! सुरंग में जगह-जगह लगाए निरीक्षक यंत्रों की जानकारी छोटू को नहीं थी। मगर छोटू के प्रवेश करते ही पहले निरीक्षक यंत्र में संदेहास्पद स्थिति दर्शाने वाली हरकत हुई. इतने छोटे कद का व्यक्ति सुरंग में कैसे आया? दूसरे निरीक्षक यंत्र ने तुरंत छोटू की तसवीर खींच ली। किसी एक नियंत्रण केंद्र में इस तसवीर की जाँच की गई और खतरे की सूचना दी गई।

इन सारी गतिविधियों से अनजान छोटू आगे बढ़ रहा था। तभी जाने कहाँ से सिपाही दौड़े चले आए। छोटू को पकड़कर वापस घर छोड़ आए। घर पर माँ छोटू का इंतज़ार कर रही थी। बस, अब छोटू की खैरियत न थी। छोटू के पापा न होते तो छोटू का बचना मुश्किल था।

"छोड़ो भी! मैं इसे समझा दूँगा सब। फिर वह ऐसी गलती कभी नहीं करेगा।" पापा ने छोटू को बचा लिया। बोले, “छोटू, मैं जहाँ काम करता हूँ न, वह क्षेत्र ज़मीन से ऊपर है। आम आदमी वहाँ नहीं जा सकता, क्योंकि वहाँ के माहौल में जी ही नहीं सकता। "

"तो फिर आप कैसे जाते हैं वहाँ?" छोटू का सवाल लाजिमी था।

"मैं वहाँ एक खास किस्म का स्पेस-सूट पहनकर जाता हूँ। इस स्पेस-सूट से मुझे ऑक्सीजन मिलता है, जिससे मैं साँस ले सकता हूँ। इसी स्पेस-सूट की वजह से बाहर की ठंड से मैं अपने आपको बचा सकता हूँ। खास किस्म के जूतों की वजह से ज़मीन के ऊपर मेरा चलना मुमकिन होता है। जमीन के ऊपर चलने-फिरने के लिए हमें एक विशेष प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है।"

छोटू सुन रहा था। पापा आगे बताने लगे, "एक समय था जब अपने मंगल ग्रह पर सभी लोग ज़मीन के ऊपर ही रहते थे। बगैर किसी तरह के यंत्रों की मदद के बगैर किसी खास किस्म की पोशाक के, हमारे पुरखे ज़मीन के ऊपर रहा करते थे लेकिन धीरे-धीरे वातावरण में परिवर्तन आने लगा। कई तरह के जीव धरती पर रहा करते थे, एक के बाद एक सब मरने लगे। इस परिवर्तन की जड़ में था-सूरज में हुआ परिवर्तन । सूरज से हमें रोशनी मिलती है, ऊष्णता मिलती है। इन्हीं तत्त्वों से जीवों का पोषण होता है। सूरज में परिवर्तन होते ही यहाँ का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया। प्रकृति के बदले हुए रूप का सामना करने में यहाँ के पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, अन्य जीव अक्षम साबित हुए। केवल हमारे पूर्वजों ने इस स्थिति का सामना किया।

"अपने तकनीकी ज्ञान के आधार पर हमने ज़मीन के नीचे अपना घर बना लिया। जमीन के ऊपर लगे विभिन्न यंत्रों के सहारे हम सूर्य-शक्ति, सूरज की रोशनी और गर्मी का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। उन्हीं यंत्रों के सहारे हम यहाँ जमीन के नीचे जी रहे हैं। यंत्र सुचारु रूप से चलते रहें. इसके लिए बड़ी सतर्कता बरतनी पड़ती है। मुझ जैसे कुछ चुनिंदा लोग इन्हीं यंत्रों का ध्यान रखते हैं।" 

'बड़ा हो जाऊँगा तो में भी यहीं काम करूंगा। छोटू ने अपनी मशा जाहिर की। 
"बिलकुल! मगर उसके लिए खूब पढ़ना होगा। माँ और पापा की बात सुननी होगी!"

माँ ने कहा।

दूसरे दिन छोटू के पापा काम पर चले गए। देखा तो कंट्रोल रूम का वातावरण बदला-बदला सा था। शिफ़्ट खत्म कर घर जा रहे स्टाफ़ के प्रमुख ने टी.वी. स्क्रीन की तरफ़ इशारा किया। स्क्रीन पर एक बिंदु झलक रहा था। वह बताने लगा, “यह कोई आसमान का तारा नहीं है, क्योंकि कंप्यूटर से पता चल रहा है कि यह अपनी जगह अडिग नहीं रहा है। पिछले कुछ घंटों के दौरान इसने अपनी जगह बदली है। कंप्यूटर के अनुसार यह हमारी धरती की तरफ़ बढ़ता चला आ रहा है। '

'अंतरिक्ष यान तो नहीं है?" छोटू के पापा ने अपना संदेह प्रकट किया।

"संदेह हमें भी है। आप अब इस पर बराबर ध्यान रखिएगा।" 

छोटू के पापा सोच में डूब गए।

क्या सचमुच अंतरिक्ष यान होगा? कहाँ से आ रहा होगा? सौर मंडल में हमारी धरती के अलावा और कौन से ग्रह पर जीवों का अस्तित्व होगा? कैसे हो सकता है? और अगर होगा भी तो क्या इतनी प्रगति कर चुका होगा कि अंतरिक्ष यान छोड़ सके ?... वैसे तो हमारे पूर्वजों ने भी अंतरिक्ष यानों, उपग्रहों का प्रयोग किया था। मगर अब हमारे लिए यह असंभव है। उसके लिए आवश्यक मात्रा में ऊर्जा तो हो। काशा इस नए मेहमान को नजदीक से देखा जा सकता। हाँ अगर वह इसी तरफ आ रहा होगा, तब तो यह संभव हो सकेगा। देखें।

... अब अंतरिक्ष यान से एक यांत्रिक हाथ बाहर निकला। हर पल उसकी लंबाई बढ़ती ही जा रही थी... छोटू के पापा ने अवलोकन जारी रखा।

कालोनी की प्रबंध समिति की सभा बुलाई गई थी। अध्यक्ष भाषण दे रहे थे "हाल ही में मिली जानकारी से पता चलता है कि दो अंतरिक्ष यान हमारे मंगल ग्रह की तरफ है बढ़ते चले आ रहे हैं। इनमें से एक अंतरिक्ष यान हमारे गिर्द चक्कर काट रहा है। कंप्यूटर के अनुसार ये अंतरिक्ष यान नजदीक के ही किसी ग्रह से छोड़े गए हैं। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिए इसको कोई सुनिश्चित योजना बनानी जरूरी है। नंबर एक आपका क्या खयाल है?"

कालोनी की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी नंबर एक पर थी। उन्होंने कुछ कागत समेटते हुए बोलना आरंभ किया, "इन दोनों अंतरिक्ष थानों को जलाकर खाक कर देने की क्षमता हम रखते हैं, मगर इससे हमें कोई जानकारी हासिल नहीं हो सकेगी। अंतरिक्ष यान बेकार कर जमीन पर उतरने पर मजबूर कर देने वाले यंत्र हमारे पास नहीं हैं। हालांकि, अगर ये अंतरिक्ष यान खुद-ब-खुद जमीन पर उतरते हैं, तो उन्हें बेकार कर देने की क्षमता हममें अवश्य है मेरी जानकारी के अनुसार इन अंतरिक्ष यानों में सिर्फ यंत्र है। किसी तरह के जीव इनमें सवार नहीं हैं। "

"नंबर एक की बात सही लगती है।" नंबर दो एक वैज्ञानिक थे। वे बोले, " हालाँकि यंत्रों को बेकार कर देने में भी खतरा है। इनके बेकार होते ही दूसरे ग्रह के लोग हमारे बारे में जान जाएँगे। इसलिए मेरी राय में हमें सिर्फ़ अवलोकन करते रहना चाहिए।"

"जहाँ तक हो सके हमें अपने अस्तित्व को छिपाए ही रखना चाहिए, क्योंकि हो सकता है जिन लोगों ने अंतरिक्ष यान भेजे हैं, वे कल को इनसे भी बड़े सक्षम अंतरिक्ष यान भेजें। हमें यहाँ का प्रबंध कुछ इस तरह रखना चाहिए जिससे इन यंत्रों को यह गलतफहमी हो कि इस जमीन पर कोई भी चीज इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि जिससे वे लाभ उठा सकें। अध्यक्ष महोदय से में यह दरख्वास्त करता हूँ कि इस तरह का प्रबंध हमारे यहाँ किया जाए।" नंबर तीन सामाजिक व्यवस्था का काम देखते थे। उनकी बात के जवाब में अध्यक्ष कुछ बोलने जा ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी। अध्यक्ष ने चोंगा उठाया, एक मिनट बाद सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “भाइयो, अंतरिक्ष यान क्रमांक एक हमारी ज़मीन पर उतर चुका है।" 

वह दिन छोटू के लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण दिन था। पापा उसे कंट्रोल रूम ले गए यहाँ से अंतरिक्ष यान क्रमांक एक साफ़ नज़र आ रहा था।

'कैसा अजीब लग रहा है यहाँ ! इसके अंदर क्या होगा पापा?" छोटू ने पूछा। 

“अभी नहीं बताया जा सकता। दूर से ही उसका निरीक्षण जारी है। उस पर बराबर हमारा ध्यान है और उसके हर अंग पर हमारा नियंत्रण है। वक्त आने पर ही हम अगला कदम उठाएँगे, " छोटू के पापा ने बताया। उन्होंने छोटू को एक कॉन्सोल दिखाया, जिस पर कई बटन थे।

अब अंतरिक्ष यान से एक यांत्रिक हाथ बाहर निकला। हर पल उसकी लंबाई बढ़ती ही जा रही थी। वह शायद जमीन तक पहुँचकर मिट्टी उकेर लेना चाहता था। सब लोग स्क्रीन पर दिखाई दे रही अंतरिक्ष यान की इस हरकत को ध्यान से देख रहे थे सिवा एक के. उसका ध्यान कहीं और ही था।

छोटू का सारा ध्यान था कॉन्सोल पैनल पर कॉन्सोल का एक बटन दबाने की अपनी इच्छा को वह रोक नहीं पाया। वह लाल लाल बटन उसे बरबस अपनी तरफ खींच रहा था। और सहसा खतरे की घंटी बजी। सबकी निगाहें कॉन्सोल की तरफ मुड़ीं। पापा ने छोटू को अपनी तरफ खींचते हुए एक झापड़ रसीद कर दिया और लाल बटन को पूर्व स्थिति में ला रखा।

मगर उस तरफ़ अब अंतरिक्ष यान के उस यांत्रिक हाथ की हरकत सहसा रुक गई थी यंत्र बेकार हो गया था। 

उधर पृथ्वी पर नेशनल एअरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) द्वारा प्रस्तुत वक्तव्य ने सबका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर लिया 

"मंगल की धरती पर उतरा हुआ अंतरिक्ष यान बाइकिंग अपना निर्धारित कार्य कर रहा है। हालांकि किसी अज्ञात कारणवश अंतरिक्ष यान का यात्रिक हाथ बेकार हो गया है।

नासा के तकनीशियन इस बारे में जाँच कर रहे हैं तथा इस यांत्रिक हाथ को दुरुस्त करने के प्रयास भी जारी हैं..."

इसके कुछ ही दिनों बाद पृथ्वी के सभी प्रमुख अखबारों ने छापा.....

'नासा के तकनीशियनों को रिमोट कंट्रोल के सहारे वाइकिंग को दुरुस्त करने में 44 सफलता मिली है। यांत्रिक हाथ ने अब मंगल की मिट्टी के विभिन्न नमूने इकट्ठे करने का काम आरंभ कर दिया है... "

पृथ्वी के वैज्ञानिक मंगल की इस मिट्टी का अध्ययन करने के लिए बड़े उत्सुक थे। उन्हें उम्मीद थी कि इस मिट्टी के अध्ययन से इस बात का पता लगाया जा सकेगा कि क्या मंगल ग्रह पर भी पृथ्वी की ही तरह जीव सृष्टि का अस्तित्व है। यह प्रश्न आज भी 1 एक रहस्य है।

जयंत विष्णु नार्लीकर 
(मराठी से अनुवाद-रेखा देशपांडे)

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2022

“ऐसे-ऐसे” | विष्णु प्रभाकर | AISE AISE | VISHNU PRABHAKAR | HINDI | CBSE | CLASS 6 | CHAPTER 8 | बसंत | NCERT

“ऐसे-ऐसे” - विष्णु प्रभाकर


पात्र परिचय

मोहन : एक विद्यार्थी

दीनानाथ : एक पड़ोसी

माँ : मोहन की माँ

पिता : मोहन के पिता

मास्टर : मोहन के मास्टर जी 

वैद्य जी, डॉक्टर तथा एक पड़ोसिन 

(सड़क के किनारे एक सुंदर फ्लैट में बैठक का दृश्य। उसका एक दरवाजा सड़कवाले बरामदे में खुलता है, दूसरा अंदर के कमरे में, तीसरा रसोईघर में। अलमारियों में पुस्तकें लगी हैं। एक ओर रेडियो का सेट है। दो और दो छोटे तख्त हैं, जिन पर गलीचे बिछे हैं। बीच में कुरसियाँ हैं। एक छोटी मेज भी है। उस पर फोन रखा है। परदा उठने पर मोहन एक तख्त पर लेटा है। आठ-नौ वर्ष के लगभग उम्र होगी उसकी। तीसरी क्लास में पढ़ता है। इस समय बड़ा बेचैन जान पड़ता है। बार-बार पेट को पकड़ता है। उसके माता-पिता पास बैठे हैं।)

माँ (पुचकारकर) नन ऐसे मत कर अभी ठीक हुआ जाता है। अभी डॉक्टर को बुलाया है। ले, तब तक सेंक ले। (चादर हटाकर पेट पर बोतल रखती है। फिर मोहन के पिता की ओर मुड़ती है।) इसने कहीं कुछ अंश तो नहीं खा लिया?

पिता कहाँ? कुछ भी नहीं सिर्फ एक केला और एक संतरा खाया था। अरे, यह तो दफ्तर से चलने तक कूदता फिर रहा था। बस अड्डे पर आकर यकायक बोला- पिता जी मेरे पेट में तो कुछ ऐसे ऐसे हो रहा है। माँ कैसे?

पिता : बस ऐसे-ऐसे करता रहा। मैने कहा- अरे गड़गड़ होती है? तो बोला नहीं। फिर पूछा- चाकू-मा चुभता है? तो जवाब दिया- नहीं गोला-सा फूटता है? तो बोला पूछा उसका जवाब नहीं बस एक ही रट लगाता रहा. कुछ ऐसे

माँ (हँसकर) हँसी की हंसी, दुख का दुख यह ऐसे ऐसे क्या होता है? कोई नयी बीमारी तो नहीं? बेचारे का मुँह कैसे उत्तर गया

पिता अभी एकदम सफेद पड़ गया था। खड़ा नहीं रहा गया। बस में भी नाचता रहा मेरे पेट में 'ऐसे ऐसे होता है। 'ऐसे-ऐसे' होता है।

मोहन चोर से कराहकर) माँ ओ माँ माँ मेरे बेटे मेरे लाल ऐसे नहीं। अजी देखना डॉक्टर क्यों नहीं आया इसे तो कुछ ही तकलीफ़ जान पड़ती है। यह 'ऐसे-ऐसे' तो कोई बड़ी खराब बीमारी है। देखोन कैसे लोट रहा है! जरा भी कल नहीं पड़ती हींग, चूरन पिपरमेंट आ जाते।

(तभी फ़ोन की घंटी बजती है। मोहन के पिता उठाते हैं।)

पिता : यह 43332 है। जी, जी हाँ बोल रहा हूँ. कौन? डॉक्टर साहब! जी हाँ, मोहन के पेट में दर्द है.. जी नहीं खाया तो कुछ नहीं, ... बस यही कह रहा है... बस जी....नहीं, गिरा भी नहीं...' ऐसे-ऐसे' होता है। बस जी, 'ऐसे-ऐसे' होता है। बस जी. 'ऐसे-ऐसे!' यह 'ऐसे-ऐसे' क्या बला है. कुछ समझ में नहीं आता। जी... जी हाँ! चेहरा एकदम सफ़ेद हो रहा है। नाचा. नाचता फिरता है... जी नहीं, दस्त तो नहीं आया. जी हाँ पेशाब तो आया था... जी नहीं, रंग तो नहीं देखा। आप कहें तो अब देख लेंगे.. अच्छा जी जरा जल्दी आइए। अच्छा जी बड़ी कृपा है। (फोन का चौगा रख देते हैं। डॉक्टर साहब चल दिए हैं। पाँच मिनट में आ जाते हैं।

(पड़ोस के लाला दीनानाथ का प्रवेश मोहन जोर से कराहता है।) 

मोहन : माँ...माँ...ओ..ओ... ( उलटी आती है उठकर नीचे झुकता है। माँ सिर पकड़ती है। मोहन तीन-चार बार 'ओओ' करता है। थूकता है, फिर लेट जाता है।) हाय, हाय!

माँ : (कमर सहलाती हुई) क्या हो गया? दोपहर को भला-चंगा गया था। कुछ समझ में नहीं आता। कैसा पड़ा है। नहीं तो मोहन भला कब पड़ने वाला है। हर वक्त पर को सिर पर उठाए रहता है।

दीनानाथ : अजी, घर क्या पड़ोस को भी गुलजार किए रहता है। इसे छेड़, उसे पछाड़ इसके मुक्का. उसके थप्पड़ यहाँ-वहाँ हर कहीं मोहन ही मोहन।

पिता : बड़ा नटखट है। 

माँ ; पर अब तो बेचारा कैसा थक गया है। मुझे तो डर है कि कल स्कूल कैसे जाएगा।  

दीनानाथ : जी हाँ कुछ बड़ी तकलीफ है, तभी तो पड़ा। मामूली तकलीफ़ को तो यह कुछ समझता नहीं। पर कोई डर नहीं। मैं वैद्य जी से कह आया हूँ। वे आ ही रहे हैं। ठीक कर देंगे।

मोहन - (तेजी से कराहकर) अरे रे-रे-रे... ओह! 

माँ - (घबराकर) क्या है, बेटा? क्या हुआ?

मोहन - (रुआँसा-सा) बड़े जोर से ऐसे-ऐसे होता है। ऐसे-ऐसे

माँ - ऐसे कैसे, बेटे? ऐसे क्या होता है?

मोहन - ऐसे-ऐसे (पेट दबाता है।)

(वैद्य जी का प्रवेश)

वैद्य जी - कहाँ है मोहन? मैंने कहा, जय राम जी की। कहो बेटा, खेलने से जी भर गया क्या? कोई धमा चौकड़ी करने को नहीं बची है क्या? 
( सब उठकर हाथ जोड़ते हैं। मोहन के पास कुरसी पर बैठ जाते हैं)

पिता - वैद्य जी, शाम तक ठीक था। दफ्तर से चलते वक्त रास्ते में एकदम बोला - मेरे पेट में दर्द होता है। ऐसे-ऐसे होता है। समझ नहीं आता, यह कैसा दर्द है।

वैद्य जी - अभी बता देता हूँ। असल में बच्चा है। समझा नहीं पाता है (नाडी दबाकर) वात का प्रकोप है... मैने कहा, बेटा, जीभ तो दिखाओ (मोहन जीभ निकालता है। कब्ज है। पेट साफ नहीं हुआ। (पेट टोलकर) पेट साफ़ नहीं है। मल रुक जाने से वायु बढ़ गई है। क्यों बेटा? (हाथ की उँगलियों को फैलकर फिर सिकोड़ते हैं।) ऐसे-ऐसे होता है?

मोहन - (कराहकर) जी हाँ... ओह

वैद्य जी - (हर्ष से उछलकर) मैंने कहा न मैं समझ गया। अभी पुड़िया भेजता हूँ। मामूली बात है, पर यही मामूली बात कभी-कभी बड़ों-बड़ों को छका देती है। समझने की बात है। मैंने कहा, आओ जी. दीनानाथ जी, आप ही पुड़िया ले लो। (मोहन की माँ से) आधे-आधे घंटे बाद गरम पानी से देनी है। दो-तीन दस्त होंगे। बस फिर 'ऐसे-ऐसे' ऐसे भागेगा जैसे गधे के सिर से सींग! 
(वैद्य जी द्वार की ओर बढ़ते हैं। मोहन के पिता पाँच का नोट निकालते हैं।) 
पिता - वैद्य जी, यह आपकी भेंट (नोट देते हैं।)

वैद्य जी - (नोट लेते हुए) अरे मैंने कहा, आप यह क्या करते हैं? आप और हम क्या दो हैं? 
(अंदर के दरवाजे से जाते हैं। तभी डॉक्टर प्रवेश करते हैं।) 

डॉक्टर : हैलो मोहन! क्या बात है? 'ऐसे-ऐसे' क्या कर लिया? 
(माँ और पिता जी फिर उठते हैं। मोहन कराहता है। डॉक्टर पास बैठते हैं।) 
पिता : डॉक्टर साहब कुछ समझ में नहीं आता।

डॉक्टर : (पेट दबाने लगते हैं।) अभी देखता हूँ। जीभ तो दिखाओ बेटा (मोहन जीभ निकालता है।) हूँ, तो मिस्टर आपके पेट में कैसे होता है? ऐसे-ऐसे? 
(मोहन बोलता नहीं, कराहता है।)

माँ - बताओ, बेटा! डॉक्टर साहब को समझा दो।

मोहन : जी... जी...ऐसे-ऐसे। कुछ ऐसे-ऐसे होता है। (हाथ से बताता है। उँगलियाँ भाँचता है। डॉक्टर, तबीयत तो बड़ी खराब है।

डॉक्टर : (सहसा गंभीर होकर) वह तो मैं देख रहा हूँ। चेहरा बताता है, इसे काफ़ी दर्द है। असल में कई तरह के दर्द चल पड़े हैं। कौलिक पेन तो है नहीं। और फोड़ा भी नहीं जान पड़ता। (बराबर पेट टटोलता रहता है।)

माँ : (काँपकर) फोड़ा!

डॉक्टर : जी नहीं, वह नहीं है। बिलकुल नहीं है। (मोहन से) ज़रा मुँह फिर खोलना। जीभ निकालो। (मोहन जीभ निकालता है।) हाँ, कब्ज़ ही लगता है। कुछ बदहज़मी भी है। (उठते हुए) कोई बात नहीं। दवा भेजता हूँ। (पिता से) क्यों न आप ही चलें। मेरा विचार है कि एक ही खुराक पीने के बाद तबीयत ठीक हो जाएगी। कभी-कभी हवा रुक जाती है और फंदा डाल लेती है। बस उसी की ऐंठन है।

(डॉक्टर जाते हैं। मोहन के पिता दस का नोट लिए पीछे-पीछे जाते हैं और डॉक्टर साहब को देते हैं।)

माँ - सेंक तो दूँ, डॉक्टर साहब?

डॉक्टर : (दूर से) हाँ, गरम पानी की बोतल से सेंक दीजिए। (डॉक्टर जाते हैं। माँ बोतल उठाती है। पड़ोसिन आती है।) 

पड़ोसिन - क्यों मोहन की माँ, कैसा है मोहन?

माँ - आओ जी, रामू की काकी! कैसा क्या होता। लोचा लोचा फिरे है। जाने वह 'ऐसे-ऐसे' दर्द क्या है, लड़के का बुरा हाल कर दिया।

पड़ोसिन - ना जी, इत्ती नयी-नयी बीमारियाँ निकली हैं। देख लेना. यह भी कोई नया दर्द होगा। राम मारी बीमारियों ने तंग कर दिया। नए-नए बुखार निकल आए हैं। वह बात है कि खाना-पीना तो रहा नहीं।

माँ : डॉक्टर कहता है कि बदहजमी है। आज तो रोटी भी उनके साथ खाकर गया था। वहाँ भी कुछ नहीं खाया। आजकल तो बिना खाए बीमारी होती है। (बाहर से आवाज आती है-'मोहन! मोहन!'। फिर मास्टर जी का प्रवेश होता है।)

माँ : ओह, मोहन के मास्टर जी हैं। (पुकारकर) आ जाइए!

मास्टर : सुना है कि मोहन के पेट में कुछ 'ऐसे-ऐसे' हो रहा है! क्यों, भाई? (पास आकर) हाँ, चेहरा तो कुछ उतरा हुआ है। दादा, कल तो स्कूल जाना है। तुम्हारे बिना तो क्लास में रौनक ही नहीं रहेगी। क्यों माता जी, आपने क्या खिला दिया था इसे ?

माँ : खाया तो बेचारे ने कुछ नहीं ।

मास्टर : तब शायद न खाने का दर्द है। समझ गया, उसी में 'ऐसे-ऐसे' होता है। 

माँ : पर मास्टर जी, वैद्य और डॉक्टर तो दस्त की दवा भेजेंगे।

मास्टर : माता जी, मोहन की दवा वैद्य और डॉक्टर के पास नहीं है। इसकी 'ऐसे-ऐसे' की बीमारी को मैं जानता हूँ। अकसर मोहन जैसे लड़कों को वह हो जाती है।

माँ : सच! क्या बीमारी है यह?

मास्टर : अभी बताता हूँ। (मोहन से) अच्छा साहब! दर्द तो दूर हो ही जाएगा। डरो मत। बेशक कल स्कूल मत आना। पर हाँ, एक बात तो बताओ, स्कूल का काम तो पूरा कर लिया है? 

(मोहन चुप रहता है।)

माँ : जवाब दो, बेटा, मास्टर जी क्या पूछते हैं।

मास्टर : हाँ, बोलो बेटा। 

(मोहन कुछ देर फिर मौन रहता है। फिर इनकार में सिर हिलाता है।)

मोहन : जी. सब नहीं हुआ।

मास्टर : हूँ! शायद सवाल रह गए हैं।

मोहन - जी !

मास्टर : तो यह बात है। 'ऐसे-ऐसे' काम न करने का डर है।

माँ : (चौंककर) क्या? 

(मोहन सहसा मुँह छिपा लेता है।)

मास्टर : (हँसकर) कुछ नहीं, माता जी, मोहन ने महीना भर मौज की। स्कूल का काम रह गया। आज खयाल आया। बस डर के मारे पेट में 'ऐसे-ऐसे' होने लगा - 'ऐसे-ऐसे'! अच्छा, उठिए साहब! आपके 'ऐसे-ऐसे' की दवा मेरे पास है। स्कूल से आपको दो दिन की छुट्टी मिलेगी। आप उसमें काम पूरा करेंगे और आपका 'ऐसे-ऐसे' दूर भाग जाएगा। (मोहन उसी तरह मुँह छिपाए रहता है।) अब उठकर सवाल शुरू कीजिए। उठिए, खाना मिलेगा। 

(मोहन उठता है। माँ ठगी-सी देखती है। दूसरी ओर से पिता और दीनानाथ दवा लेकर प्रवेश करते हैं।)

माँ : क्यों रे मोहन, तेरे पेट में तो बहुत बड़ी दाढ़ी है। हमारी तो जान निकल गई। पंद्रह-बीस रुपए खर्च हुए. सो अलग। (पिता से) देखा जी आपने!

पिता : ( चकित होकर) क्या-क्या हुआ?

माँ : क्या-क्या होता ! यह 'ऐसे-ऐसे' पेट का दर्द नहीं है, स्कूल का काम न करने का डर है।

पिता : हें!

(दवा की शीशी हाथ से छूटकर फ़र्श पर गिर पड़ती है। एक क्षण सब ठगे-से मोहन को देखते हैं। फिर हँस पड़ते हैं।)

दीनानाथ : वाह, मोहन, वाह !

पिता : वाह, बेटा जी, वाह! तुमने तो खूब छकाया ! 

(एक अट्टहास के बाद परदा गिर जाता है।)

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022

अक्षरों का महत्त्व | गुणाकर मुले | AKSHARO KA MAHATTV | GUNAKAR MULE | HINDI | CBSE | CLASS 6 | CHAPTER 5 | बसंत | NCERT

अक्षरों का महत्त्व - गुणाकर मुले


अक्षरों की कहानी......

यह पुस्तक अक्षरों से बनी है। सारी पुस्तकें अक्षरों से बनी हैं। तरह-तरह की पुस्तकें। तरह-तरह के अक्षर।

दुनिया में अब तक करोड़ों पुस्तकें छप चुकी हैं। हजारों पुस्तकें रोज छपती हैं। तरह-तरह के अक्षरों में हज़ारों की तादाद में रोज़ ही समाचार-पत्र छपते रहते हैं। इन सबके मूल में हैं अक्षर। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि यदि आदमी अक्षरों को न जानता, तो आज इस दुनिया का क्या हाल होता।

कोई कह सकता है कि हम अक्षरों को अनादि काल से जानते हैं। अक्षरों का ज्ञान हमें किसी ईश्वर से मिला है।

पुराने जमाने के लोग सचमुच ही सोचते थे कि अक्षरों की खोज ईश्वर ने की है। पर आज हम जानते हैं कि अक्षरों की खोज किसी ईश्वर ने नहीं, बल्कि स्वयं आदमी ने की है। अब तो हम यह भी जानते हैं कि किन अक्षरों की खोज किस देश में किस समय हुई ! हमारी यह धरती लगभग पाँच अरब साल पुरानी है। दो-तीन अरब साल तक इस धरती पर किसी प्रकार के जीव-जंतु नहीं थे। फिर करोड़ों साल तक केवल जानवरों और वनस्पतियों का ही इस धरती पर राज्य रहा। आदमी ने इस धरती पर कोई पाँच लाख साल पहले जन्म लिया। धीरे-धीरे उसका विकास हुआ।

कोई दस हज़ार साल पहले आदमी ने गाँवों को बसाना शुरू किया। वह खेती करने लगा। वह पत्थरों के औज़ारों का इस्तेमाल करता था। फिर उसने ताँबे और काँसे के भी औजार बनाए।

प्रागैतिहासिक मानव ने सबसे पहले चित्रों के ज़रिए अपने भाव व्यक्त किए। जैसे, पशुओं, पक्षियों, आदमियों आदि के चित्र। इन चित्र-संकेतों से बाद में भाव संकेत अस्तित्व में आए। जैसे, एक छोटे वृत्त के चहुँ ओर किरणों की द्योतक रेखाएँ खींचने पर वह 'सूर्य' का चित्र बन जाता था। बाद में यही चित्र 'ताप' या 'धूप' का द्योतक बन गया। इस तरह अनेक भाव-संकेत अस्तित्व में आए।

तब जाकर काफ़ी बाद में आदमी ने अक्षरों की खोज की। अक्षरों की खोज के सिलसिले को शुरू हुए मुश्किल से छह हजार साल हुए हैं। केवल छह हजार साल!

मध्य अमरीका के बिवा आदिवासियों के चित्र (दाई ओर से बाई ओर को क्रमशः ) तूफान का देवता जो सारे आकाश को घेरता है, नगाड़ा, पंखों से सुशोभित नगाड़ा, द्रोणकाक, कीवा और दवाखाने में आदमी।

अक्षरों की खोज के साथ एक नए युग की शुरुआत हुई। आदमी अपने विचार और अपने हिसाब-किताब को लिखकर रखने लगा। तबसे मानव को 'सभ्य' कहा जाने लगा। आदमी ने जबसे लिखना शुरू किया तबसे 'इतिहास' आरंभ हुआ। किसी भी कौम या देश का इतिहास तब से शुरू होता है जबसे आदमी के लिखे हुए लेख मिलने लग जाते हैं। इस प्रकार, इतिहास को शुरू हुए मुश्किल से छह हजार साल हुए हैं। उसके पहले के काल को 'प्रागैतिहासिक काल' यानी इतिहास के पहले का काल कहते हैं।

अतः हम देखते हैं कि यदि आदमी अक्षरों की खोज नहीं करता तो आज हम इतिहास को न जान पाते। हम यह न जान पाते कि पिछले कुछ हजार सालों में आदमी किस प्रकार रहता था, क्या-क्या सोचता था. कौन-कौन राजा हुए इत्यादि।

अक्षरों की खोज मनुष्य को सबसे बड़ी खोज है। अक्षरों की खोज करने के बाद ही मनुष्य अपने विचारों को लिखकर रखने लगा। इस प्रकार एक पीढ़ी के ज्ञान का इस्तेमाल दूसरी पीढ़ी करने लगी। अक्षरों की खोज करने के बाद पिछले छह हज़ार सालों में मानव जाति का तेजी से विकास हुआ।

यह महत्त्व है अक्षरों का और उनसे बनी हुई लिपियों का। अतः हम सबको अक्षरों की कहानी मालूम होनी चाहिए। आज जिन अक्षरों को हम पढ़ते या लिखते हैं वे कब बनाए गए, कहाँ बने और किसने बनाए, यह जानना जरूरी है भी।

मंगलवार, 27 सितंबर 2022

नादान दोस्त - प्रेमचंद | NADAN DOST | PREMCHAND | HINDI | CBSE | CLASS 6 | CHAPTER 3 | बसंत | NCERT

नादान दोस्त - प्रेमचंद


केशव के घर कार्निस के ऊपर एक चिड़िया ने अंडे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्यामा दोनों बड़े ध्यान से चिड़िया को वहाँ आते-जाते देखा करते। सवेरे दोनों आँखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और चिड़ा और चिड़िया दोनों को वहाँ बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बच्चों को न मालूम क्या मजा मिलता, दूध और जलेबी की सुध भी न रहती थी। दोनों के दिल में तरह-तरह के सवाल उठते । अंडे कितने बड़े होंगे? किस रंग के होगे? कितने होंगे? क्या खाते होंगे? उनमें से बच्चे किस तरह निकल आएंगे? बच्चों के पर कैसे निकलेंगे? घोंसला कैसा है? लेकिन इन बातों का जवाब देने वाला कोई नहीं। न अम्मों को घर के काम-धंधों से फुरसत थी, न बाबू जी को पढ़ने-लिखने से। दोनों बच्चे आपस ही में सवाल-जवाब करके अपने दिल को तसल्ली दे लिया करते थे।

श्यामा कहती - क्यों भइया, बच्चे निकलकर फुर्र से उड़ जाएँगे?

केशव विद्वानों जैसे गर्व से कहता नहीं री पगली, पहले पर निकलेंगे। बगैर परों के बेचारे कैसे उड़ेंगे?

श्यामा- बच्चों को क्या खिलाएगी बेचारी?

केशव इस पेचींदा सवाल का जवाब कुछ न दे सकता था।

इस तरह तीन-चार दिन गुजर गए। दोनों बच्चों की जिज्ञासा दिन-दिन बढ़ती जाती थी। अंडों को देखने के लिए ये अधीर हो उठते थे। उन्होंने अनुमान लगाया कि अब जरूर बच्चे निकल आए होंगे। बच्चों के चारे का सवाल अब उनके सामने आ खड़ा हुआ।

चिड़िया बेचारी इतना दाना कहाँ पाएगी कि सारे बच्चों का पेट भरे। गरीब बच्चे भूख के मारे चूँ-चूँ करके मर जाएँगे।

इस मुसीबत का अंदाजा करके दोनों घबरा उठे। दोनों ने फैसला किया कि कार्निस पर थोड़ा सा दाना रख दिया जाए। श्यामा खुश होकर बोली तब तो चिड़ियों को चारे के लिए कहीं उड़कर न जाना पड़ेगा न?

केशव - नहीं, तब क्यों जाएँगी?

श्यामा - क्यों भइया, बच्चों को धूप न लगती होगी?

केशव का ध्यान इस तकलीफ की तरफ न गया था। बोला- जरूर तकलीफ़ हो रही होगी। बेचारे प्यास के मारे तड़पत होंगे। ऊपर छाया भी तो कोई नहीं।

आखिर यहाँ फ़ैसला हुआ कि घोसले के ऊपर कपड़े को छत बना देनी चाहिए। पानी की प्याली और थोड़े से चावल रख देने का प्रस्ताव भी स्वीकृत हो गया।

दोनों बच्चे बड़े चाव से काम करने लगे। श्यामा माँ की आँख बचाकर मटके से चावल निकाल लाई। केशव ने पत्थर की प्याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और उसे खूब साफ़ करके उसमें पानी भरा।

अब चाँदनी के लिए कपड़ा कहाँ से आए? फिर ऊपर बगैर छड़ियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और छड़ियाँ खड़ी होंगी कैसे?

केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में रहा। आखिरकार उसने यह मुश्किल भी हल कर दी। श्यामा से बोला- जाकर कूड़ा फेंकनेवाली टोकरी उठा लाओ। अम्मा जी को मत दिखाना।

श्यामा- वह तो बीच से फटी हुई है। उसमें से धूप न आएंगी?

केशव ने झुँझलाकर कहा- तू टोकरी तो ला, मैं उसका सूराख बंद करने की कोई हिकमत निकालूंगा।

श्यामा दौड़कर टोकरी उठा लाई। केशव ने उसके सूराख में थोड़ा-सा कागज ठूँस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला - देख, ऐसे ही घोंसले पर उसकी आड़ कर दूँगा। तब कैसे धूप जाएगी?

श्यामा ने दिल में सोचा, भइया कितने चालाक हैं!

2

गरमी के दिन थे। बाबू जी दफ्तर गए हुए थे। अम्माँ दोनों बच्चों को कमरे में सुलाकर खुद सो गई थीं। लेकिन बच्चों की आँखों में आज नींद कहाँ? अम्माँ जी को बहलाने के लिए दोनों दम रोके, आँखें बंद किए. मौके का इंतज़ार कर रहे थे। ज्यों ही मालूम हुआ कि अम्माँ जी अच्छी तरह से सो गई, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से दरवारों की सिटकनी खोलकर बाहर निकल आए। अड़ों की हिफाजत की तैयारियाँ होने लगी। केशव कमरे से एक स्टूल उठा लाया, लेकिन जब उससे काम न चला तो नहाने की चौकी लाकर स्टूल के नीचे रखी और डरते डरते स्टूल पर चढ़ा।

श्यामा दोनों हाथों से स्टूल पकड़े हुए थी। स्टूल चारों टाँगे बराबर न होने के कारण जिस तरफ़ ज्यादा दबाव पाता था, जरा-सा हिल जाता था। उस वक्त केशव को कितनी तकलीफ़ उठानी पड़ती थी, यह उसी का दिल जानता था। दोनों हाथों से कार्निस पकड़ लेता और श्यामा को दबी से डाँटता- अच्छी तरह पकड़ वरना उतरकर बहुत मारूंगा। मगर बेचारी श्यामा का दिल तो ऊपर कार्निस पर था। बार-बार उसका ध्यान उधर चला जाता और हाथ ढीले पड़ जाते।

केशव ने ज्यों ही कार्निस पर हाथ रखा, दोनों चिड़ियाँ उड़ गई। केशव ने देखा, कार्निस पर थोड़े तिनके बिछे हुए हैं और उन पर तीन अंडे पड़े हैं। जैसे घोंसले उसने पेड़ों पर देखे थे, वैसा कोई घोंसला नहीं है। श्यामा ने नीचे से पूछा - कै बच्चे हैं भइया?

केशव - तीन अंडे हैं, अभी बच्चे नहीं निकले।

श्यामा- जरा हमें दिखा दो भइया, कितने बड़े हैं?

केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा चिथड़े ले आ, नीचे बिछा दूँ। बेचारे अंडे तिनकों पर पड़े हैं।

श्यामा दौड़कर अपनी पुरानी धोती फाड़कर एक टुकड़ा लाई। केशव ने झुककर कपड़ा ले लिया, उसकी कई तह करके उसने एक गद्दी बनाई और उसे तिनकों पर बिछाकर तीनों अंडे धीरे से उस पर रख दिए।

श्यामा ने फिर कहा - हमको भी दिखा दो भइया।

केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा वह टोकरी तो दे दो. ऊपर छाया कर दूँ।

श्यामा ने टोकरी नीचे से थमा दी और बोली-अब तुम उतर आओ, मैं भी तो देखूँ। केशव ने टोकरी को एक टहनी से टिकाकर कहा - जा. दाना और पानी की प्याली ले आ मैं उत्तर आऊँ तो तुझे दिखा दूंगा।

श्यामा प्याली और चावल भी लाई। केशव ने टोकरी के नीचे दोनों चीजें रख दी और आहिस्ता से उतर आया।

श्यामा ने गिड़गिड़ाकर कहा - अब हमको भी चढ़ा दो भइया।

केशव तू गिर पड़ेगी।

श्यामा- न गिरूँगी भइया, तुम नीचे से पकड़े रहना।

केशव- न भइया, कहीं तू गिर-गिरा पड़ी तो अम्माँ जी मेरी चटनी ही कर डालेंगी। कहेंगी कि तूने ही चढ़ाया था। क्या करेगी देखकर? अब अंडे बड़े आराम से हैं। जब बच्चे निकलेंगे, तो उनको पालेंगे।

दोनों चिड़ियाँ बार-बार कार्निस पर आती थीं और बगैर बैठे ही उड़ जाती थीं। केशव ने सोचा, हम लोगों के डर से नहीं बैठती। स्टूल उठाकर कमरे में रख आया, चौकी जहाँ की थी, वहाँ रख दी।

श्यामा ने आँखों में आँसू भरकर कहा- तुमने मुझे नहीं दिखाया, मैं अम्माँ जी से कह दूँगी।

केशव अम्मी जी से कहेगी तो बहुत मारूंगा कहे देता हूँ।

श्यामा- तो तुमने मुझे दिखाया क्यों नहीं?

केशव - और गिर पड़ती तो चार सर न हो जाते!

श्यामा - हो जाते, हो जाते देख लेना मैं कह दूँगी!

इतने में कोठरी का दरवाजा खुला और माँ ने धूप से आँखों को बचाते हुए कहा- तुम दोनों बाहर कब निकल आए? मैंने कहा न था कि दोपहर को न निकलना? किसने किवाड़ खोला?

किवाड़ केशव ने खोला था, लेकिन श्यामा ने माँ से यह बात नहीं कही। उसे डर लगा कि भइया पिट जाएँगे। केशव दिल में काँप रहा था कि कहीं श्यामा कह न दे। अंडे न दिखाए थे, इससे अब उसको श्यामा पर विश्वास न था। श्यामा सिर्फ मुहब्बत के मारे चुप थी या इस कसूर में हिस्सेदार होने की वजह से, इसका फ़ैसला नहीं किया जा सकता। शायद दोनों ही बातें थीं।

माँ ने दोनों को डाँट-डपटकर फिर कमरे में बंद कर दिया और आप धीरे-धीरे उन्हें पंखा झलने लगी। अभी सिर्फ दो बजे थे। बाहर तेज लू चल रही थी। अब दोनों बच्चों को नींद आ गई थी।

3

चार बजे यकायक श्यामा की नींद खुली। किवाड़ खुले हुए थे। वह दौड़ी हुई कार्निस के पास आई और ऊपर की तरफ़ ताकने लगी। टोकरी का पता न था। संयोग से उसकी नज़र नीचे गई और वह उलटे पाँव दौड़ती हुई कमरे में जाकर ज़ोर से बोली- भइया, अंडे तो नीचे पड़े हैं. बच्चे उड़ गए।

केशव घबराकर उठा और दौड़ा हुआ बाहर आया तो क्या देखता है कि तीनों अंडे नीचे टूटे पड़े हैं और उनसे कोई चूने की-सी चीज़ बाहर निकल आई है। पानी की प्याली भी एक तरफ़ टूटी पड़ी है।

उसके चेहरे का रंग उड़ गया। सहमी हुई आँखों से जमीन की तरफ देखने लगा।

श्यामा ने पूछा - बच्चे कहाँ उड़ गए भइया? केशव ने करुण स्वर में कहा - अंडे तो फूट गए।

श्यामा- और बच्चे कहाँ गए?

केशव - तेरे सर में देखती नहीं है अंडों में से उजला-उजला पानी निकल आया है। वही तो दो-चार दिनों में बच्चे बन जाते।

माँ ने सोटी हाथ में लिए हुए पूछा - तुम दोनों वहाँ धूप में क्या कर रहे हो?

श्यामा ने कहा - अम्मी जी चिड़िया के अंडे टूटे पड़े हैं।

माँ ने आकर टूटे हुए अंडों को देखा और गुस्से से बोलीं- तुम लोगों ने अंडों को छुआ होगा।

अब तो श्यामा को भइया पर जरा भी तरस न आया। उसी ने शायद अंडों को इस तरह रख दिया कि वह नीचे गिर पड़े। इसकी उसे सजा मिलनी चाहिए। बोली- इन्होंने अंडों को छेड़ा था अम्मी जी।

माँ ने केशव से पूछा - क्यों रे?

केशव भीगी बिल्ली बना खड़ा रहा।

माँ तू वहाँ पहुंचा कैसे?

श्यामा - चौकी पर स्टूल रखकर चढ़े अम्माँ जी।

केशव - तू स्टूल थामे नहीं खड़ी थी?

श्यामा - तुम्हीं ने तो कहा था।

माँ - तू इतना बड़ा हुआ तुझे अभी इतना भी नहीं मालूम कि छूने से चिड़ियों के अंडे गंदे हो जाते हैं। चिड़िया फिर उन्हें नहीं सेती।

श्यामा ने डरते-डरते पूछा - तो क्या चिड़िया ने अंडे गिरा दिए हैं अम्माँ जी ?

माँ- और क्या करती ! केशव के सिर इसका पाप पड़ेगा। हाय, हाय, तीन जानें ले ली दुष्ट ने!

केशव रोनी सूरत बनाकर बोला - मैंने तो सिर्फ अंडों को गद्दी पर रख दिया था अम्मा जी!

माँ को हँसी आ गई। मगर केशव को कई दिनों तक अपनी गलती पर अफ़सोस होता रहा। अंडों की हिफ़ाजत करने के जोग में उसने उनका सत्यानाश कर डाला। इसे याद कर वह कभी-कभी रो पड़ता था।

दोनों चिड़ियाँ वहाँ फिर न दिखाई दीं।

प्रेमचंद